Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 386
________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३७३ ************************************************************************************ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के अपर्याप्तक के अल्पबहुत्व के अनुसार एवं त्रस के पर्याप्तक का अल्पबहुत्व, पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक के अल्पबहुत्व के अनुसार समझना चाहिये। विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर तीन विकलेन्द्रिय जीवों को अधोलोक से तिर्यक् लोक में संख्यात गुणा और त्रसादि जीवों को असंख्यात गुणा बताया है। इसका कारण यह है कि यद्यपि त्रस जीवों में भी विकलेन्द्रिय जीव ही अधिक है तथापि पंचेन्द्रिय की अपेक्षा विशेषाधिक ही है। अत: विकलेन्द्रियों को जो संख्यात गुणा बताया वह बहुत बड़ा (ऊंचे दर्जे का) समझना तथा त्रसादि में जो असंख्यात गुणा बताया वह असंख्यात के प्रारम्भ का दर्जा समझना। तथा यह भी संभव है कि नीचे के पानी (अधोलोक के समुद्रों के भागों में) सम्मुछिम पंचेन्द्रिय कम होते होंगे और बीच में अर्थात् तिर्यक् लोक के समुद्र के भाग में ज्यादा होते होंगे। अतः असंख्यात गुणा हो सकता है। त्रस जीवों की त्रिलोक स्पर्शमा उपपात के प्रथम समय में ही माननी चाहिये। क्योंकि बीच में अलोक का व्याघात नहीं हो तो कोई भी जीव पहले ऊर्ध्व या अधोगति करके फिर मोड़ लेते हैं तथा त्रस जीव तो त्रसनाली में ही होते हैं। अत: उपपात के प्रथम समय में ही त्रिलोक स्पर्शना हो सकेगी। एकेन्द्रिय तो यथा संभव दूसरे तीसरे समय में भी कर सकते हैं। त्रिलोक स्पर्शना में टीकाकार तो ईलिका गति व एक समय के विग्रह गति वाले जीवों को ही ग्रहण करते हैं। परन्तु धारणानुसार ईलिका व मंडलुगति के तथा ऋजुगति व दो-तीन समयादि के वक्र गति वालों को भी यथा संभव त्रिलोक स्पर्शना में ग्रहण कर लेना चाहिए। समोहया मरण के उपपात में भी त्रिलोक की स्पर्शना हो सकती है। विदिशा से दिशा में आने पर अर्थात् ऊर्ध्वलोक की त्रस नाली से अधोलोक की त्रसनाली में आने पर वह उपपात के पहले दूसरे समय में भी त्रिलोक का स्पर्श करता है यद्यपि असमोहया मरण (ऋजुगति) में भी प्रथम समय में त्रिलोक की स्पर्शना हो सकती है। (जैसे अधोलोक से सिद्ध होने वाले की स्पर्शना त्रिलोक की होती है) परन्तु यहाँ पर इस प्रकार की त्रिलोक स्पर्शना की आगमकारों ने विवक्षा नहीं की होगी। अथवा इस प्रकार से भी त्रिलोक स्पर्शना मान लेवे तो भी अल्पबहुत्व में फर्क (अन्तर) नहीं पड़ता है। क्षेत्रानुपात से जीवों की अल्प बहुत्व में - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पर्याप्त अपर्याप्त की पृच्छा की गई है परन्तु नारक देवों के पर्याप्त अपर्याप्त की पृच्छा नहीं की गई है इसका कारण यह संभव है कि - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तो दोनों भेद शाश्वत मिलते हैं परन्तु नरक देवों के अपर्याप्त शाश्वत नहीं मिलते हैं। अथवा आगमकारों की कथन करने की विचित्र शैली होने से इस प्रकार कहा गया है। जैसे गति द्वार में पर्याप्त अपर्याप्त के भेद नहीं किये हैं परन्तु इन्द्रिय और कायद्वार में किये हैं। क्षेत्रानुपात में बताई हुई सभी अल्पबहुत्व उत्कृष्टता की अपेक्षा से समझना चाहिये अतः उपरोक्त सभी अल्पबहुत्व में कोई बाधा नहीं आती है। ॥चौबीसवां क्षेत्र द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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