Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा बहुवक्तव्यता पद
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गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा विभंग णाणी, मइ अण्णाणी सुय अण्णाणी दोवि
तुल्ला अनंत गुणा ॥ १७८ ॥
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भावार्थ प्रश्न हे भगवन्! इन मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभंग ज्ञानी में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, उनसे मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुणा
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ज्ञान द्वार
और परस्पर तुल्य हैं।
अज्ञान किसे कहते हैं ?
विवेचन प्रश्न उत्तर - अज्ञान में दो शब्द मिले हुए हैं यथा अ + ज्ञान संस्कृत में नञ् शब्द है। जिसके हिन्दी में दो रूप होते हैं। यथा - अ और अन् । नञ् के आगे जब कोई व्यंजन होता है तो न का अ बनता है जैसे कि न+विवेक=अविवेक । न+मर अमर, न+जर= अजर। स्वर आगे होने पर न का अन् होता है यथा-न+आकार=अनाकार, न+अगार अनगार, न+उपयोग = अनुपयोग, न+अधिकार = अनधिकार आदि आदि ।
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इस प्रकार नञ् दो अर्थों में आता है यथा- पर्युदास और प्रसज्जक । नञ का तीसरा अर्थ हैकुत्सा (नञ् कुत्सार्थत्वम्) यहाँ पर ज्ञान शब्द के साथ नञ का अर्थ कुत्सा किया गया है यथा- नञ्कुत्सितम् ज्ञानम् - अज्ञानम् । अर्थात् कुत्सित अर्थात् निन्दित ज्ञान अज्ञान कहलाता है। यहाँ पर नञ् का अर्थ निषेध नहीं करना चाहिए। यथा नञ् + ज्ञानम् = अज्ञानम् । अर्थात् ज्ञान नहीं। ऐसा अर्थ नहीं करना . चाहिए क्योंकि यह अर्थ आगमकार को इष्ट नहीं है। क्योंकि बिना ज्ञान का कोई जीव होता ही नहीं है। क्योंकि नन्दी सूत्र में बतलाया गया है कि चाहे जीव निगोद में चला जाय तो अक्षर का अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञान तो वहाँ पर भी अनावृत ( उघाड़ा) रहता ही है। यदि वह अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञान भी ढक जाय तो जीव अजीव हो जाता है । परन्तु ऐसा कभी होता ही नहीं है कि जीव अजीव बन जाय। इसलिए सब जीवों में न्यूनाधिक ज्ञान होता ही है किन्तु मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान कहलाता है क्योंकि इसकी दृष्टि विपरीत है इसलिए उसका ज्ञान भी विपरीत ज्ञान है। निष्कर्ष यह है कि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान (कुत्सिक ज्ञान) कहलाता है।
ज्ञानियों का अल्पबहुत्व कहने के बाद सूत्रकार अब ज्ञानियों के प्रतिपक्ष रूप अज्ञानियों का अल्पबहुत्व कहते हैं - सबसे थोड़े विभंग ज्ञानी हैं क्योंकि कितनेक नारक, देव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को विभंगज्ञान होता है। उनसे मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों में भी मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान होता हैं और वे अनन्त हैं तथा स्व स्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं क्योंकि "जहाँ मति अज्ञान है वहाँ श्रुत अज्ञान अवश्य है और जहाँ श्रुत अज्ञान है वहाँ मति अज्ञान अवश्य है।" ऐसा आगम वचन है।
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