Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 381
________________ ३६८ ******************* Jain Education International प्रज्ञापना सूत्र ********************************* करते हैं। ये जीव वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात द्वारा भी दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में संख्यातगुणा हैं क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले अधोलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात द्वारा भी दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवों के शाश्वत स्थान हैं और मेरु पर्वत तथा अंजनादिक पर्वतों की बावड़ियों में तिर्यंच हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक में चार पाताल कलश हैं, सलिलावती विजय वप्रा विजय एक-एक हजार योजन ऊँडी है तथा सभी समुद्र एक-एक हजार योजन गहरे हैं वहाँ तिर्यंच जीव बहुत अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि तिर्यक्लोक में तिर्यंच बहुत हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में प्रायः वैमानिक ही है। अतः पंचेन्द्रिय पर्याप्तक सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों के समीप ज्योतिषी देव हैं। वैमानिक, व्यन्तर, ज्योतिषी देव विद्याधर चारण मुनि तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में जाते आते इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक में रहे हुए भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव तथा विद्याधर मारणान्तिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक तक आत्म प्रदेश फैलाते हुए तीनों लोक का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, क्योंकि बहुत से वाणव्यन्तर देव अपने स्थान के समीप होने से अधोलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं । भवनपति देव अधोलोक से तिर्यक्लोक में जाते आते तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव अधोलोक के ग्रामों में समवसरणादि में तथा अधोलोक में क्रीड़ा निमित्त जाते आते इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा समुद्रों में कई तिर्यंच पंचेन्द्रिय अपने स्थान इन दोनों प्रतरों के समीप होने से तथा कई इन दोनों प्रतरों से आश्रित क्षेत्र में रहने से इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा है क्योंकि अधोलोक में नैरयिक और भवनपतियों के अपने स्थान हैं अतः संख्यात गुणा है। उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में तिर्यंच पंचेन्द्रिय-मनुष्य, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों के स्व स्थान हैं अतः यहाँ असंख्यात गुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढवीकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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