________________
तीसरा बहवक्तव्यता पद - सम्यक्त्व द्वार
३२९
************************************************************************************
तेजोलेश्या वालों से लेश्या रहित जीव (अलेशी) अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं। उनसे कापोत लेश्या वाले अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों में भी कापोत लेश्या संभव है और वनस्पतिकायिक सिद्धों से भी अनंत गुणा हैं। उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि कापोत लेश्या वाले जीवों की अपेक्षा नील लेश्या वाले जीव अधिक हैं उनसे कृष्ण लेश्या वाले जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि नीललेश्या वालों से कृष्णलेश्या वाले जीव बहुत अधिक हैं उनसे सामान्यतः लेश्या सहित (सलेशी) जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि नीललेश्या वालों आदि का भी उसमें समावेश होता है।
॥आठवां लेश्या द्वार समाप्त॥
९. नौवां सम्यक्त्व द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सम्मदिट्ठीणं मिच्छादिट्ठीणं सम्मामिच्छादिट्ठीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छदिट्ठी, सम्मदिट्ठी अणंत गुणा, मिच्छादिट्ठी अणंत गुणा॥९ दारं॥१७६ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव मिश्रदृष्टि वाले हैं उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्त गुणा हैं, उनसे मिथ्यांदृष्टि जीव अनन्त गुणा हैं।
विवेचन - प्रश्न - सम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा मिथ्यात्व मोहनीय, समकित मोहनीय और मिश्र मोहनीय। इन सात प्रकृतियों का उपशम क्षय या क्षयोपशम होने से आत्मा में जो गुण प्रकट होता है उसको "सम्यक्त्व" कहते हैं। समकित या सम्यग्दृष्टि इसके पर्यायवाची नाम हैं। समकित के तीन भेद हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
सबसे थोड़े जीव मिश्रदृष्टि हैं क्योंकि मिश्रदृष्टि के परिणाम का काल अन्तर्मुहूर्त (श्वासोच्छ्वास पृथक्त्व) प्रमाण ही है अत: बहुत अल्पकाल होने से थोड़े जीव ही पाये जाते हैं उनकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनंत गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से अनंत गुणा हैं और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं।
॥ नौवां सम्यक्त्व द्वार समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org