Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का विस्तार विशेष है इसलिए अधोलोक में विशेषाधिक कहे गये हैं।
खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा णेरड्या तेलोक्के, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए असंखिजगुणा॥१९७॥ ___ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े नैरयिक त्रिलोक में हैं, उनसे अधोलोक तिर्यग्लोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे भी अधोलोक में असंख्यात गुणा हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा नरक गति के जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े नैरयिक जीव तीन लोक में हैं - तीन लोक का स्पर्श करने वाले हैं।
शंका - नैरयिक जीव तीनों लोकों को स्पर्श करने वाले कैसे हो सकते हैं क्योंकि वे तो अधोलोक में हैं तथा वे सबसे अल्प क्यों हैं ? ___समाधान - मेरु पर्वत के शिखर पर अथवा अंजन, दधिमुख आदि पर्वतों के शिखर पर रही हुई वापिकाओं (बावडियों) में रहने वाले जो मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच नरक में उत्पन्न होने वाले हैं वे मरण समय में ईलिका गति से अपने आत्म-प्रदेशों को उत्पत्ति स्थान तक फैलाते हैं और तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं और उस समय वे नारक ही कहलाते हैं क्योंकि तत्काल ही उन की उत्पत्ति नरक में होने वाली होती है और वे नरकायु का वेदन करने वाले होते हैं ऐसे नैरयिक थोड़े ही होते हैं अतः त्रिलोक स्पर्शी नैरयिक सबसे कम कहे गये हैं। ___ तीन लोक का स्पर्श करने वाले नैरयिकों से अधोलोक तिर्यक् लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक् लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में रहे हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव नरक में उत्पन्न होते हुए अधोलोक और तिर्यक् लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। मेरु पर्वत आदि के क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्र रूप क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अत: वहाँ से नरक में उत्पन्न होने वाले जीव भी असंख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणा है क्योंकि अधोलोक में नैरयिकों के रहने का स्थान ही है। इस प्रकार नरक गति की अपेक्षा क्षेत्र के अनुसार अल्पबहुत्व कहा गया है।
विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर नैरयिक जीवों की अल्प बहुत्व में क्षेत्र की अपेक्षा तीन भेद ही किये गये हैं। क्योंकि नरक में उत्पद्यमान (उत्पन्न होने वाले) ऊर्ध्वलोक एवं तिर्यंच लोक में रहे हुए जीव पहले तिर्यग् (तिरछा) विग्रह (मोड़) नहीं करते हैं। ऊर्ध्व या अधो विग्रह को करने से नैरयिक जीव तिर्यग् लोक और ऊर्ध्वलोक में नहीं मिलते हैं। यदि पहले तिर्यग् विग्रह करे तो ऊर्ध्वलोक और तिर्यग् लोक में मिल सकते हैं परन्तु स्वभाव से ही वे जीव ऐसी विग्रह गति नहीं करते हैं ऐसी संभावना है। अतः ऊर्ध्व और अधो विग्रह ही करने से क्षेत्र के शेष तीन भेदों (१ ऊर्ध्व लोक तिर्यग् लोक, २
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