Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा बहुवक्तव्यता पद -चरम द्वार ***************************************************************************
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गुणे, अद्धासमए दव्वट्ठऽपएसट्टयाए अणंत गुणे, आगासत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे॥२१ दारं॥१९३॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! १. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीन द्रव्य की अपेक्षा से परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं और २. उनसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा परस्पर तुल्य तथा असंख्यात गुणा है, ३. उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ४. प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा है, ५. उनसे पुद्गलास्तिकाय-द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ६. प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है ७. उनसे अद्धा समय द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ८. उससे भी आकाशास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से छह द्रव्यों का शामिल अल्पबहुत्व कहा गया है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीन द्रव्य रूप से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं क्योंकि प्रत्येक एक-एक द्रव्य है उससे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है और स्वस्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं। उससे जीवास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं क्योंकि जीव द्रव्य अनन्त हैं। वही जीवास्तिकाय प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रदेश रूप से जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं, क्योंकि जीव के एक-एक प्रदेश पर अनन्त ज्ञानावरणीय आदि कर्म पुदगल स्कन्ध लगे हुए हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा है। इसका कारण पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिये। प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय से अद्धासमय-द्रव्यार्थ और अप्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुणा है। इसका कारण भी पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिए। उनसे आकाशास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं क्योंकि उसका सर्व दिशाओं में अन्त नहीं है और अद्धा समय मात्र मनुष्य क्षेत्र में ही होता है। इस प्रकार अस्तिकाय द्वार का कथन हुआ।
॥इक्कीसवां अस्तिकाय द्वार समाप्त॥
२२. बाईसवां चरम द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाणं च कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंत गुणा॥२२ दारं॥१९४॥
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