Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार
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दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े अधः सप्तम ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं।
दक्षिण के अधः सप्तम नरक पृथ्वी के नैरयिकों से छठी तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण दिशा के तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण दिशा के धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं।
दक्षिण के पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से तीसरी वालुकाप्रभा के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं ।
दक्षिण के वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं t
1. दक्षिण के शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं।
विवेचन - सबसे थोड़े नैरयिक पूर्व, उत्तर और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि वहां पुष्पावकीर्ण नरकावास कम हैं और वे प्रायः संख्यात योजन के विस्तार वाले हैं। उनसे दक्षिण दिशा में रहे हुए नैरयिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति विशेष होती है। प्रश्न- कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक किसे कहते हैं ?
उत्तर
जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन शेष (बाकी) रहा हैं । वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं और जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक बाकी है वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं। जैसा कि कहा है -
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•जेसिं अवड्ढो पुग्गल परियट्टो, सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्हपक्खी उ ॥
प्रश्न- शुक्ल पाक्षिक बनने के लिए क्या प्रयत्न करना पड़ता है ?
उत्तर - किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए पांच समवाय निमित्त कारण बनते हैं । यथा - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ ( पुरुषकार पराक्रम) । समकित की प्राप्ति और यहाँ तक कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी पांच समवाय कारण बनते हैं। उनके लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है । परन्तु शुक्ल पाक्षिक बनने के लिए इन की आवश्यकता नहीं होती है। उसमें काल की प्रधानता रहती है। बाकी सब गौण हो जाते हैं। इसके लिए किसी प्रकार का पुरुषार्थ करने की
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