Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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आवश्यकता नहीं है। शुक्ल पाक्षिक, भव्य जीव ही बनते हैं अभवी नहीं। जिस भवी जीव का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन बाकी रह जाता है तब वह स्वतः शुक्ल पाक्षिक कहलाने लग जाता है। शुक्ल पाक्षिक बनने के बाद परित्त संसारी, समकिती, देशविरति और सर्व विरति आदि बनता है ।
इसलिये शुक्लपाक्षिक (अल्प संसारी) जीव थोड़े हैं और कृष्णपाक्षिक जीव अधिक कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। कृष्णपाक्षिक जीव दीर्घ ससारी होते हैं और दीर्घ संसारी बहुत पापकर्म के उदय वाले क्रूरकर्मी होते हैं ऐसे क्रूरकर्मी दीर्घ संसारी जीव स्वभावतः दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा में बहुत नरकावास होने से और बहुत नरकावास असंख्यात योजन के विस्तार वाले होने से तथा कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति होने से दक्षिण दिशा में पूर्व, पश्चिम उत्तर दिशा की अपेक्षा असंख्यात गुणा नैरयिक अधिक कहे गये हैं। जिस प्रकार सामान्यतः नैरयिकों का दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार रत्नप्रभा आदि सातों नरक पृथ्वियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिये ।
सात नरक पृथ्वियों के जीवों का परस्पर अल्पबहुत्व- सातवीं नरक पृथ्वी में पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशा के नैरयिकों से सातवीं नरक पृथ्वी के दक्षिण दिशा के नैरयिक असंख्यात गुणा हैं । उनसे तमः प्रभा नामक छठी पृथ्वी के पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं। इसका कारण यह है कि सर्वोत्कृष्ट पाप करने वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य सातवीं नरक पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं और उनसे हीन, अधिक हीन पाप करने वाले छठी आदि नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। सर्वोत्कृष्ट पाप करने वाले सबसे थोड़े हैं और क्रमश: कुछ हीन, हीनतर आदि पाप करने वाले बहुत हैं अतः सातवीं पृथ्वी के दक्षिण दिशा के नैरयिकों से छठी पृथ्वी के पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के नैरयिक असंख्यात गुणा हैं। इसी प्रकार शेष सभी नरक पृथ्वियों के विषय में समझ लेना चाहिये।
दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ॥ १४१ ॥
भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव पश्चिम दिशा में हैं उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक और उनसे भी उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व अप्कायिक जीवों की तरह समझना चाहिये । दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखिज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया ॥ १४२ ॥
भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं।
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