Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 326
________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३१३ ************************************************************************************ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा है, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं और उनसे भी बादर जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादर आदि जीवों का शामिल पांचवां अल्प बहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तकः बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा है3, उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं। इस अल्प बहुत्व को पूर्वानुसार समझ लेना चाहिए। उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात प्रतरों में जितने आकाश प्रदेशी हैं उतने हैं और अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं अतः असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं - इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा कहना क्योंकि ये सभी असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। फिर भी असंख्यात के असंख्यात भेद होने से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणापन में बाधा नहीं है। अपर्याप्तक बादर वायुकायिक से पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि बादर एक एक निगोद में अनंत जीव होते हैं, उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक-एक पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक निगोद के आश्रयी असंख्यात अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक निगोद की उत्पत्ति होती है। उनसे सामान्य बादर के अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उनमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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