Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तीसरा बहुवक्तव्यता पद - योग द्वार
३२५
*
**
*
*
*
***
***************
***********************************************
संस्कृत में "युजिद् योगे" धातु है जिसका अर्थ है जोड़ना। जो आत्मा को आठ प्रकार के कर्म से जोड़ता है अथवा जिसके द्वारा आत्मा आठ प्रकार के कर्मों से जोड़ दिया जाता है उसे योग कहते हैं। उसके तीन भेद हैं - मनोयोग, वचनयोग, काययोग। ___ काय द्वार का वर्णन करने के बाद सूत्रकार योगद्वार का वर्णन करते हैं - सबसे थोड़े मनोयोगी हैं क्योंकि संज्ञी पर्याप्त जीव ही मनोयोग वाले होते हैं जो कि बहुत अल्प हैं, उनसे वचन योगी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बेइन्द्रिय आदि जीव वचन योग वाले हैं और वे संज्ञी से असंख्यात गुणा हैं, उनसे अयोगी अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं उनसे काय योगी अनन्तगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। अनंत निगोद जीवों का एक शरीर है और वे सभी जीव एक शरीर से ही आहार आदि ग्रहण करते हैं अतः सभी जीव काय योगी होने से उनके अनन्तगुणत्व में बाधा नहीं है उनसे सामान्य सयोगी विशेषाधिक हैं क्योंकि वचन योग वाले और काय योग वाले बेइन्द्रिय आदि जीवों का उसमें समावेश होता है।
॥ पांचवां योग द्वार समाप्त॥
६. छठा वेद द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेयगाणं णपुंसगवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेयगा, इत्थीवेयगा संखिज गुणा, अवेयगा अणंत गुणा, णपुंसग वेयगा अणंत गुणा, सवेयगा विसेसाहिया॥६ दारं॥१७३॥ ____भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सवेदी-वेदसहित, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अवेदी-वेद रहित जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पुरुषवेदी हैं, उनसे स्त्रीवेदी संख्यात गुणा हैं, उनसे अवेदी अनंत गुणा हैं, उससे नपुंसगवेदी अनन्त गुणा हैं, उनसे सवेदी विशेषाधिक हैं।
विवेचन - प्रश्न - वेद किसे कहते हैं? . उत्तर - "वेद्यते इति वेदः।" संस्कृत में "विद् ज्ञाने" धातु है उससे वेद शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसके द्वारा वेदन किया जाता है, उसको वेद कहते हैं अर्थात् वेदमोहनीय कर्म के उदय से मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। इसके दो भेद हैं - द्रव्य वेद और भाव वेद। स्त्री-पुरुष आदि के बाह्य चिह्न को द्रव्य वेद कहते हैं। ये निर्माण नाम कर्म के उदय से प्रकट होते हैं और मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को भाव वेद कहते हैं। इसके तीन भेद है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org