Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार
२९५
************************************************************************************
विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, उनसे सइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं और उनसे भी सइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में समुच्चय सइन्द्रिय आदि पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों का शामिल अल्प बहुत्व कहा गया है। इस अल्प बहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्ववत् समझ लेना चाहिये।
॥ तृतीय इन्द्रिय द्वार समाप्त॥
४. चतुर्थ (चौथा) काय द्वार एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अकाइयाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखिज गुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अकाइया अणंत गुणा, वणस्सइकाइया अणंत गुणा, सकाइया विसेसाहिया॥१५२॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े त्रसकायिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं उनसे अकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे वनस्पतिकांयिक अनन्त गुणा हैं और उनसे भी सकायिक विशेषाधिक हैं।
विवेचन - प्रश्न - काया किसे कहते हैं? उत्तर - "चीयते यथायोग्यम् औदारिक आदि वर्गणारूपं चयं नीयते इति कायः।"
संस्कृत में "चिञ्" चयने धातु है। जिसका अर्थ है चुनना, इक्कट्ठा करना। इस चिञ् धातु से काय शब्द बनता है जिसका अर्थ है यथायोग्य औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों को इक्कट्ठा करना। इसको काय कहते हैं। स्त्री लिंग में आप् प्रत्यय कर देने से काया शब्द बन जाता है।
१. छह कायिक सकायिक और अकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े त्रसकायिक हैं क्योंकि उनमें बेइन्द्रिय आदि जीव हैं जो अन्य कायों (पृथ्वीकाय आदि) की अपेक्षा कम है, उनसे तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org