Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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साइया अपज्जवसिया अणेगजाइ-जरामरण-जोणिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगब्भवासवसही-पवंचसमइक्कंता सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति।
कठिन शब्दार्थ - थूभियग्गाओ - स्तूपिका के अग्रभाग से, अबाहाए - बिना व्यवधान के, मायाए - मात्रा से, परिहायमाणी - हीन होते हुए, मच्छियपत्ताओ - मक्खी के पंख से, तणुययरी - अधिक पतली, लोयग्गथूभिया - लोकाग्र स्तूपिका, लोयग्गपडिबुज्झणा - लोकाग्र प्रतिबोधना, सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा - सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावहा - सभी प्राण भूत जीव सत्त्व के लिये सुखकारी, संखदलविमलसोस्थिय मुणाल-दगरय-तुसारगोक्खीरहारवण्णा - शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, तुषार (हिम) गो दुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया - उलटे किये हुए छत्र के संस्थान में स्थित, सव्वजुणसुवण्णमई - पूर्ण रूप से अर्जुन स्वर्ण के समान।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन ! सिद्ध कहाँ निवास करते हैं? .
उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध महाविमान के ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर बिना व्यवधान (बाधा) के ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही गई है जिसकी लम्बाई चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन और उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बहुत मध्यदेश भाग में आठ योजन का क्षेत्र है जिसकी आठ योजन मोटाई कही गयी है। उसके अनन्तर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) मात्रा मात्रा से प्रदेशों की कमी होते जाने से हीन हीन होती हुई वह सब से अंत में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी कही गयी है।
ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं - १. ईषत् २. ईषत् प्राग्भारा ३. तनु ४. तनु-तनु ५. सिद्धि ६. सिद्धालय ७. मुक्ति ८. मुक्तालय ९. लोकाग्र १०. लोकाग्र स्तूपिका ११. लोकाग्र प्रति बोधना (प्रतिवाहिनी) १२. सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावहा। .
ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी श्वेत है। शंख दल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उलटे किये हुए छत्र के आकार में स्थित, पूर्ण रूप से अर्जुन सुवर्ण के समान श्वेत, स्वच्छ, चिकनी, कोमल, घिसी हुई, चिकनी की हुई, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, कांति युक्त, प्रभायुक्त, श्री संपन्न, उद्योतमय, प्रसन्नता देने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है।
ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी से निसरणी की गति से एक योजन पर लोक का अन्त है। उस योजन का जो ऊपरी गाऊ है उस गाऊ का जो ऊपरी छठा भाग है वहाँ सादि अनन्त अनेक जन्म जरा मरण और
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