Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान
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विवेचन - (अ) इस गाथा के द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद स्पष्ट किया गया है। जब पदार्थों को सर्वतः देखा जाता है, तब वे पदार्थ सावयव होते हुए भी अभिन्न रूप से दिखाई देते हैं और जब उनके गुणादि की ओर दृष्टि रहती है, तब उनमें भेद ही भेद दिखाई देता है।
(आ) द्रव्य-गुण और पर्याय का आश्रय भूत द्रव्य होता है।
गुण-पदार्थव्यापी अंश अर्थात् पदार्थव्यापी ऐसा अंश, जो वैसे ही अन्य अंशों के साथ पदार्थ में अविरोधी रूप से रहता है, उसे गुण कहते हैं।
पर्याय-पदार्थ की क्रमवर्ती अवस्था को पर्याय कहते हैं।
(इ) सिद्ध अन्तर्मुख ही होते हैं-बहिर्मुख नहीं। यह जो सर्व-द्रव्यादि का ज्ञान होता है, वह उनकी अन्तर्मुखता के कारण ही होता है। आत्मा तो स्व-उपयोग का ही स्वामी है। अर्थात् स्व-उपयोग की लीनता में ही यह विशेषता है कि-उसमें सभी द्रव्यादि का ज्ञान स्वतः होता है। आगम काल के पश्चात् जो ये भेद हुए हैं कि केवली व्यवहार दृष्टि से ही सर्व द्रव्यादि को जानते हैं और निश्चयदृष्टि से तो अपनी आत्मा को ही जानते हैं-वे मात्र समझने के लिये ही है। वस्तुतः स्व-उपयोग में व्यवहारनिश्चय रूप भिन्न दृष्टियों से कोई विशेष. अन्तर नहीं है।
सर्वज्ञ, सर्वदर्शी-केवली भगवान् “सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल, सर्व भाव जानते देखते हैं" - इसका आशय यह समझना कि - केवलज्ञान व केवल दर्शन के पर्याय सर्वाधिक स्तर के (सभी अनन्त
के प्रकारों में सबसे ऊंचा दर्जा अर्थात् मध्यम अनन्तानंत आठवें अनन्त का बहुत ऊंचा दर्जा) होते हैं। उस ज्ञान दर्शन के द्वारा सभी ज्ञेय पदार्थ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) के सभी अविभाज्य अंश-सम्पूर्ण रूप से संख्या आदि सभी दृष्टि से जाने देखे जाते हैं। अतः केवलियों के लिए कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव अनजाना अनदेखा नहीं होता है अतः उसका आदि अन्त भी जानते देखते हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन ज्ञाता द्रष्टा होने से भाजन के समान आधार भूत है - सभी द्रव्यादि उसके विषय रूप (ज्ञेय रूप) होने से आधेय गिने जाते हैं। आधार हमेशा बड़ा ही होता है। थाली के समान के ज्ञान, दर्शन और कटोरियों के समान द्रव्यादि। 'अनादि अनंत' शब्दों का व्यवहार छद्मस्थों को समझाने के लिए किया है। केवलियों के लिए कोई भी द्रव्यादि अनादि अनंत' नहीं होते हैं। भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४ के अनुसार केवलज्ञानी मित अमित सभी को जानते देखते हैं। भगवती सूत्र शतक २५ में बताई हुई . लोक-अलोक के पूर्वादि दिशाओं की श्रेणियों से यह स्पष्ट हो जाता है।
णवि अत्थि माणुसाणं, तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं॥१४॥
भावार्थ - न तो मनुष्यों को ही वह सुखानुभव है और न सभी देवों को ही, जो सौख्य अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित अवस्था को प्राप्त सिद्धों को ही प्राप्त होता है।
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