Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 277
________________ २६४ *嚳米米帝嚳帝※※嚳嵌嚳楽楽谢谢谢 *******宗宗宗宗案件 प्रज्ञापना सूत्र ***密密宗豪帝豪豪豪出嚳事案案图案来常常面卡奶来电我未来常常和带来安金 करते हैं और उन सर्वात्म प्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंख्येय गुण वे सिद्ध हैं- जो देश प्रदेशों से स्पृष्ट हैं। विवेचन - एक-एक सिद्ध समस्त आत्म- प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप से स्पर्श किये हुए हैं इस प्रकार एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्त सिद्धों की अवगाहना रही हुई है और एक में अनन्त अवगाढ हो जाते हैं, उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों कितनेक भागों एक दूसरे में अवगाढ हैं। तात्पर्य यह है कि अनन्त सिद्ध तो ऐसे हैं जो पूरी तरह एक दूसरे में समाये हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देश प्रदेशों से अर्थात् कतिपय अंशों में एक दूसरे समाये हुए हैं। सिद्ध भगवान् अरूपी अमूर्त होने के कारण उनकी एक दूसरे में अवगाहना होने में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है। जिस प्रकार अनेक दीपकों की ज्योति एक दूसरे में समाई हुई होती हैं, उसी प्रकार सिद्ध भगवान् भी ज्योति में ज्योति स्वरूप विराजमान हैं। असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य । सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ १२ ॥ भावार्थ- वे सिद्ध अशरीरी, जीवघन और दर्शन तथा ज्ञान-इन दोनों उपयोगों में क्रमशः स्थित हैं । साकार विशेष उपयोग ज्ञान और अनाकार - सामान्य उपयोग-दर्शन चेतना-सिद्धों का लक्षण है। विवेचन - वस्तु के भेद युक्त ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और वस्तु के अभेद ज्ञान को अनाकार उपयोग। सिद्धान्त पक्ष इन दोनों उपयोगों की प्रवृत्ति सिद्धों में भी क्रमशः मानता है। इस पक्ष के पोषक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्य । कुछ आचार्य दोनों उपयोगों को युगपद् मानते हैं और सिद्धसेन दिवाकर तर्क बल से इस मत की स्थापना करते हैं कि- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में, केवली अवस्था में किसी प्रकार का भेद नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदाय में युगपद् उपयोग का ही प्रतिपादन है। स्थानकवासी सम्प्रदाय सिद्धांत पक्ष को ही मान्यता देता हैं। सैद्धांतिकों की दृष्टि में - ' जानने में प्रवृत्त होना' और 'देखने में प्रवृत्त होना' अर्थात् 'विशेष ज्ञानोपयोग की स्थिति' और 'सामान्य ज्ञानोपयोग की स्थिति' ये आत्मा के एक ही गुण की दो पर्यायें हैं। पर्यायें क्रमवर्ती ही हो सकती हैं। अतः सिद्धों को भी विशेषज्ञान और सामान्यज्ञान क्रमशः ही होते हैं । साकार और अनाकार उपयोग ही सिद्धों का लक्षण है। केवलणाणुवत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठी हिं अणंताहिं ॥ १३ ॥ भावार्थ - अनन्त केवलज्ञानांपयोग से सभी वस्तुओं के गुण और पर्यायों को जानते हैं और अनन्त केवलदृष्टि से सर्वतः - चारों ओर से देखते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org

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