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२६८
प्रज्ञापना सूत्र
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विवेचन -
म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः। अन्यदा तन्त्र भषालो, दष्टाश्वेन प्रवेशितः॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम्। प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम्॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात्। विशिष्ट भोगभूतीनां, भाजन जनपूजितः ॥३॥ ततः प्रासावभंगेषु, रम्येषु, काननेषु च। वृत्तो विलासिनीसाथै भुंक्ते भोगसुखान्यसौ॥४॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ मेघाडम्बर मण्डितम्। व्योम दृष्ट्वा ध्वनिं श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम्॥५॥ जातोत्कण्ठो दृढं जातो-ऽरण्यवासगमं प्रति। विसर्जितश्च राज्ञाऽपि, प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम्?। स स्वभावान् पुरः सर्वान्, जानात्येव हि केवलम्॥७॥ न शशाक तकां(तरां) तेषां, गदितुं स कृतोद्यमः। वने वनेचराणां हि, नास्ति सिद्धोपमा यतः (तथा)॥
भावार्थ - एक म्लेच्छ किसी महारण्य में रहता था। राजा दुष्ट अश्व के द्वारा वहाँ पहुँच गया अर्थात् जंगल को प्राप्त हो गया।।१॥
उस म्लेच्छ ने राजा को देखा और उसका यथोचित सत्कार किया। जब वह राजा स्वदेश को लौटा तो उस म्लेच्छ को भी साथ ले गया॥२॥
राजा ने अपना उपकारी जानकर, उसे विशिष्ट भोग साधन दिये और उसे जन-पूजित बनाया ॥३॥
उसने प्रासाद-शिखरों पर और रम्य बगीचों में विलासिनियों से घिरे रह कर, भोगसुखों को भोगा।। ४ ॥ ___वर्षा ऋतु आई। बादलों से गगन मण्डित हो गया। वह आकाश को देख कर और मनोहर मेघध्वनि को सुन कर, अरण्य में जाने के लिये उत्सुक हुआ। राजा ने भी उसे विसर्जित किया और वह जंगल में गया ।। ५॥६॥
जंगल निवासी उसे पूछते हैं-'तात ! नगर कैसा है?' वह नगर के सभी स्वभावों को जानता है ही। किन्तु उद्यम करने पर भी, वह वन में वनचरों को कहने में समर्थ नहीं हो सका। ऐसे ही सिद्ध भगवन्तों के सुखों की उपमा भी किसी भी सांसारिक पदार्थो से नहीं दी जा सकती है॥७॥८॥
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