Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तइयं बहुवत्तव्वयं (अप्पाबहुयं) पयं तीसरा बहुवक्तव्यता (अल्पबहुत्व) पद
उत्क्षेप (उत्थानिका) - प्रथम पद और द्वितीय पद की व्याख्या कर दी गयी। अब यह तीसरा पद प्रारम्भ होता है। इसके दो नाम हैं। बहुवक्तव्य पद और अल्प बहुत्व पद। बहुवक्तव्य पद इसलिए कहा गया है कि इसमें द्रव्यों की संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी एक परम ब्रह्म को ही मानते हैं। उनकी मान्यता है कि तत्त्व एक ही है, बाकी दृश्यमान जगत् तो उसकी पर्याय (विवर्त-परिणाम) मात्र है। सांख्य मतावलम्बियों की मान्यता है कि जीव तो अनेक हैं परन्तु अजीव एक ही है। बौद्ध दर्शन अनेक चित्त और अनेक रूप मानता है परन्तु सब को क्षणिक मानता है। जैन दर्शन में द्रव्यों की संख्या छह बताई गयी है। यथा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और छठा काल। इन छह द्रव्यों में परस्पर अल्प बहुत्व का निरूपण भी किया गया है। अर्थात् कौन सा द्रव्य किस द्रव्य से अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है इसका पृथक्-पृथक् अनेक तरह से विचार किया गया है।
___ अल्प बहुत्व - इस पद में दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से लेकर महादण्डक तक २७ (सत्ताईस) द्वारों से अल्प बहुत्व का विचार किया गया है।
२७. वें द्वार का नाम महादण्डक है। जिसका अर्थ है ९८ बोल का अल्पबहुत्व बतलाया गया है जिसको थोकड़े वाले "अट्ठाणु बोल का बासठिया" कहते हैं। इसको बासठिया इसलिये कहते हैं कि एक मूल भेद को लेकर अन्य इकसठ बातों का विचार किया गया है यथा
जीव के चौदह भेद गुणस्थान
योग
उपयोग लेश्या मूलक का एक बोल
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