Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान
२४९
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गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई, बहुगाओ जोयणकोडीओ, बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ, उड्ढे दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण सणंकुमार जाव आरणच्चुयकप्या, तिण्णि अट्ठारसुत्तरे गेविजग विमाणा-वाससए वीईवइत्ता तेण परं दूरं गया णीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा, पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाविमाणा पण्णत्ता। तंजहा - विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे।
ते णं विमाणा सव्व रयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति। सव्वे समिडिया सव्वे समज्जुइया, सव्वे समजसा सव्वे समबला, सव्वे समाणुभावा, महासुक्खा, अणिंदा, अपेस्सा, अपुरोहिया, अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥१३५॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन! अनत्तरौपपातिक देव कहाँ रहते हैं?
उसर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत सम एवं रमणीय भूमि भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषी देवों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक कोटि योजन और बहुत से कोटाकोटि योजन ऊपर दूर जाकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार यावत् आरण-अच्युत कल्पों और उसके बाद ग्रैवेयकों के तीन सौ अठारह विमानों को उल्लंघन (पार) करके वहाँ से बहुत दूर, रज रहित, निर्मल, अंधकार रहित और विशुद्ध पांच दिशाओं में पांच महा अनुत्तर विमान कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध। वे विमान सर्व रत्नमय स्फटिक समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, प्रभा से युक्त, श्री संपन्न, उद्योत युक्त, प्रसन्नता देने वाले, दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप है। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात और समुद्घात तथा स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से अनुत्तरौपपातिक देव रहते
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