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१७६
प्रज्ञापना सूत्र
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हेट्ठा चेगं जोयण-सहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभा पुढवी जेरइयाणं तीसं णिरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्य संठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा ववगय-गहचंद-सूर-णक्खत्त जोइसप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुई (वीसा) परमदुब्भिगंधा, काऊअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं रयणप्पभा पुढवी णेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, उव्वाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे रयणप्पभा पुढवी रइया परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीर लोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उद्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरग भयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥९७॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! इस एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन (प्रवेश) करने पर तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में सतत अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग में मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के तथा कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए
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