Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२१८१,
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प्रज्ञापना सूत्र
गोमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयण सहस्स 'बाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमेज णयरावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भोमेज्ज णयरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवण वण्णओ तहा भाणियव्वो जाव पडिरूवा ।
एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति, महिड्डिया जहा ओहिया जाव विहरति । काल महाकाला इत्थ दुवे पिसाइंदा पिसाय रायाणो परिवसंति, महिड्डिया महज्जुइया जाव विहति ॥ ११७ ॥
भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं । हे भगवन् ! पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर एक सौ योजन अवगाहन कर तथा नीचे एक सौ योजन को छोड़ कर मध्य के आठ सौ योजन में पिशाच देवों के तिरछे भूमि संबंधी असंख्यात लाख नगर हैं। ऐसा कहा गया है - वे भूमि सम्बन्धी नगर बाहर से गोल हैं इत्यादि वर्णन सामान्य भवन वर्णन प्रमाण यावत् प्रतिरूप - नवीन नवीन रूप को धारण करने वाले हैं तक कह देना चाहिए। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से पिशाच देव रहते हैं । वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सामान्य वर्णन यावत् - विचरण करते हैं वहाँ तक जानना चाहिए । यहाँ काल और महाकाल नाम के दो पिशाच इन्द्र और पिशाच राजा रहते हैं । वे महाऋद्धि त्राले महाद्युति वाले यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये।
कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ता पंज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयण सहस्स बाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा गंजोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएस एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमेज्ज णयरा वास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भवणा जहा ओहिओ भवण वण्णओ तहा भाणियव्वो जाव पडिरूवा । एत्थ णं
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