Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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वितिमिरा - वितिमिर-तिमिर अर्थात् अन्धकार से रहित। ८.णिप्पंका - निष्पङ्क-कीचड़ रहित।
९. णिक्कंकडच्छाया - निष्कङ्कट छाया - आवरण रहित और उपघात रहित छाया अर्थात् दीप्ति वाले।
विसुद्धा - विशुद्ध-निष्कलंक। १०. सप्पभा - सप्रभा स्वरूप से ही प्रभा (कान्ति) वाले अथवा स्वयं आभा-चमक से सम्पन्न। ११. सम्मिरिया (सस्सिरिया)- समरिचि-मरिचि अर्थात् किरणों से युक्त तथा शोभा युक्त।
१२. सउज्जोया - सउद्योत=उद्योत अर्थात् प्रकाश सहित तथा समीपस्थ वस्तु को प्रकाशित करने वाले।
१३. पासाईया - प्रासादीय=मन को प्रसन्न करने वाले।
१४. दरिसणिजा - दर्शनीय देखने योग्य तथा देखते हुए आँखों को थकान मालूम नहीं होत हो ऐसे।
१५. अभिरुवा - अभिरूव-अत्यन्त कमनीय-मन की प्रसन्नता के अनुकूल होने से मानो सम्मुख आ रहे हो।
१६. पडिरूवा - प्रतिरूप प्रत्येक व्यक्ति के लिए रमणीय अथवा जितनी बार देखो उतनी बार नया नया रूप दिखाई देता है। ___भूमि को गोबर आदि से उपलेपन का आशय तथाप्रकार के विशिष्ट उपलेपन योग्य पुद्गलों को समझना चाहिये। लीपने की समानता बताने के लिए अर्थों में गोबर का उदाहरण दे दिया है। इसी प्रकार दीवारों को चुने से पोतने के समान विशिष्ट प्रकार के पुद्गलों से पोता हुआ समझना चाहिये।
प्रश्न - भवनपति देवों के दस भेदों को 'कुमार' शब्द से विशेषित क्यों किया गया है?
उत्तर - जिस प्रकार कुमार (बालक) क्रीड़ा, खेलकूद आति को पसन्द करते हैं, उसी प्रकार ये भवनपति देव भी क्रीड़ा में रत रहते हैं तथा सदा जवान की तरह जवान (युवा) बने रहते हैं। इसलिए इनको कुमार कहते हैं।
प्रश्न - भवनों और आवासों में क्या फरक होता है ?
उत्तर - भवन बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होते हैं। उनके नीचे का भाग कमल की कर्णिका (बीजकोष) के आकार वाला होता है तथा शरीर परिमाण बड़े मणि तथा रत्नों के प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले आवास (मण्डप) कहलाते हैं। भवनपति (भवनवासी) देव भवनों तथा आवासों दोनों में रहते हैं।
मूल पाठ में यह कहा गया है कि एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी (जाड़ी) इस रत्नप्रभा
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