Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान
२१५
***********
******************************************************************
में होने वाले सुगंधित पुष्पों से सुरचित (अच्छी तरह गूंथी हुई) लम्बी शोभनीय, कांत-प्रिय खिलती हुई विचित्र वनमाला से सुशोभित वक्ष स्थल वाले, कामरूव देहधारी - इच्छानुसार रूप और देह के धारक, णाणा विहवण्ण राग वर वत्थ विचित्त चिल्लल गणियंसणा - नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र देदीप्यमान वस्त्रों को पहनने वाले, विविह देसिणेवत्थ गहियवेसा - विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले, पमुइय कंदप्प कलह केलि कोलाहलप्पिया - प्रमुदित कन्दर्प, कलह केलि (क्रीड़ा) और कोलाहल जिन्हें प्रिय है, असि मुग्गर सत्ति कुंतहत्था - तलवार मुद्गर, शक्ति (शस्त्र विशेष) और भाला जिनके हाथ में है।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वाणव्यंतर देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! वाणव्यंतर देव कहाँ निवास करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के ऊपर एक सौ योजन अवगाहन (प्रवेश) करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर मध्य के आठ सौ योजन में वाणव्यंतर देवों के तिरछे असंख्य भूमिगृह के समान लाखों नगरावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भूमि संबंधी नगर बाहर से गोल, अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार वाले हैं। उन नगरावासों के चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ एवं परिखाएँ हैं, जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है।
वे नगरावास यथा स्थान प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों एवं प्रतिद्वारों से युक्त हैं जो विविध यंत्रों, शतघ्नियों, मूसलों एवं मुसुण्ढियों आदि से युक्त हैं। वे शत्रुओं द्वारा अयोध्य, सदा जयी, सदागुप्त, ४८ कोष्ठकों से रचित, ४८ वनमालाओं से सुसज्जित क्षेम (उपद्रव रहित) और शिवमय किंकरदेवों के दण्डों से रक्षित है। गोबर आदि से लीपने और चूने आदि से पोतने के कारण सुशोभित उन नगरावासों पर गोशीर्ष चन्दन और सरस रक्त चंदन से लिप्त हाथों से छापे लगे हुए होते हैं। जहाँ चंदन के कलश रखे हुए होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं। वे ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी और विपुल पुष्पमालाओं के गुच्छों से युक्त तथा पंच वर्ण के सरस सुगंधित पुष्पों की शोभा से युक्त होते हैं। वे काले अगर श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय और सुगंधित बने हुए होते हैं। जो गंध की बट्टी के समान हैं। अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वादिन्त्रों के शब्दों से शब्दायमान, पताकाओं की पंक्ति से मनोहर, सर्व रत्नमय हैं, ___ अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए साफ किये हुए, रज रहित निर्मल, निष्पंक, निरावरण कांतिवाले, प्रभा वाले किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप होते हैं। ऐसे नगरावासों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं जहाँ बहुत से .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org