Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान
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जाडाई १८००-१९०० योजन की है और लम्बाई लोकान्त पर्यन्त है। इसे ही 'दो ऊर्ध्वकपाट' कहा गया है। बीच का गोलक (भुंगला) ऊपर नीचे लोकान्त पर्यन्त और चारों कर्ण १९०० योजन की जाड़ाई वाले हैं। इतना क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों के उपपात का माना गया है। सलिलावती और वप्रा विजय (२४ वीं, २५ वीं) १००० (हजार) योजन उण्डी (गहरी) आई हुई होने से एवं वहाँ पर बादर तेजस्काय होने से ऊर्ध्व कपाटों की जाडाई १९०० योजन समझी जाती है। ___ केवली समुद्घात के कपाट की तरह यहाँ पर ४५ लाख योजन के दो ऊर्ध्व कपाट बताये हैं। इससे दोनों ऊर्ध्व कपाट सर्वत्र लोकान्त तक होना स्पष्ट होता है। इसका निषेध करने के लिये ही आगमकार आगे ‘तिरियलोयतट्टे य' पाठ देते हैं। जिससे दोनों ऊर्ध्व कपाटों के तिर्यग्लोकस्थ भाग का ही बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों के उपपात रूप से ग्रहण किया गया है। यद्यपि मूल पाठ में ४५ लाख योजन का उल्लेख नहीं है। तथापि आगमकारों का आशय 'उपपात क्षेत्र की सीध (समश्रेणी) में आ जाना ही उपपात रूप से विवक्षित है। उपपात क्षेत्र की सीध का ग्रहण करने पर वैसा-उस प्रकार का (उपरोक्त) आकार बन जाता है। टीका में भी ऐसा अर्थ किया है।
"पणयाललक्खपिहला, दुण्णि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा।
लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ धिप्पन्ति॥" __ इस टीका की गाथा में भी छहों दिशों में लोकान्त का स्पर्श बताया है। इससे भी १४ रज्जु की लम्बाई स्पष्ट हो जाती है 'तिरियलोयतट्टे य' आगम के इन शब्दों से सम्पूर्ण ऊर्ध्व कपाट लोकान्त जितने लम्बें नहीं समझे जाते हैं।
नोट - यहाँ पर कपाट (किंवाड़) का जो कथन किया गया है वह केवल समझाने की दृष्टि से कपाटों की कल्पना मात्र की गयी है किन्तु इनको लोह के अथवा लकड़ी आदि के बने हुए कपाट (किंवाड) नहीं समझना चाहिए। "दोसु उड्ढकवाडेसु" - इस सम्बन्ध में टीका में दो मान्यताएं बताई गई है। दूसरी मान्यता आगम अर्थों से ज्यादा उचित लगती है परन्तु उसमें भी कुछ अपूर्णता है। टीकागत दोनों मान्यताओं से कुछ भिन्न उपर्युक्त धारणा का कारण इस प्रकार से समझना है - "अढ़ाई द्वीप (समय क्षेत्र) की सीध के लोकान्त तक का क्षेत्र भी पूरा आपूरित (व्याप्त) नहीं होता है। युगलिक क्षेत्र व पर्वत तो पूरे छूट जाते हैं तथा महाविदेह क्षेत्र में भी बीच के दो युगलिक क्षेत्र देवकुरु उत्तर कुरु (५४-५४ हजार के) तो छूट ही जाते हैं तथा कर्म भूमि के क्षेत्रों में भी बहुत कम अग्निका प्राप्त होती है। अमुक जगह सिगड़ी जल रही है तो उससे निरन्तर ऊपर नीचे कहीं न कहीं अग्निकाय होगी - ऐसा भी नहीं है अर्थात् अग्नि के उत्पत्ति प्रायोग्य क्षेत्र होते हुए भी प्रत्येक (हर एक) आकाश प्रदेश पर निरन्तर अग्निकाय नहीं मिलती है तथा लोक के प्रत्येक आकाश प्रदेश से बादर अपर्याप्त तेजस्काय के जीव आने वाले मिलते हैं। पृथ्वी आदि चार स्थावरों का उपपात सर्व लोक बताया है।
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