Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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चार स्थावर के चार स्थावरों में आने वाले (तथा तेजस्काय से चार स्थावरों में आने वाले) जीव प्रत्येक आकाश प्रदेश पर असंख्यात, असंख्यात मिलते हैं, तो क्या बादर तेजस्काय में आने वाले २-४ जीव भी प्रति आकाश प्रदेश पर नहीं मिलेंगे? अतः हम 'प्रति आकाश प्रदेश से अपर्याप्त बादर तेजस्काय पें आने वाले मिलते हैं।' ऐसा कहते हैं तथा 'खवगसेढी' ग्रन्थ में भी ऐसा ही बताया है फिर भी. आगमकारों ने उपपात 'दोसु उड्डकवाडेसु' बताया है। अढाई द्वीप में भी अनेक धाराएं उत्पत्ति की बनती है। उन्हें अलग अलग बताना बड़ा दुरूह (कठिन) हो जाता है। एक संख्यातवें भाग क्षेत्र में भी बहुत धाराएं (उस क्षेत्र में अग्नि की निरन्तरता नहीं होने से) बन जाती है। उन्हें जोड़ने के लिए 'दोसु उड्डकवाडेसु' बताया है। अतः 'उपपात' का अर्थ 'उत्पत्ति स्थान की सीध (समंश्रेणी)' ऐसा करना ही उचित रहता है (टीका में भी ऐसा ही अर्थ किया है) जिससे ऊर्ध्वकपाट का महाविदेह क्षेत्र की सीध में रहा हुआ जीव भरत क्षेत्र की तेजस्काय में उत्पन्न होने के लिए आ रहा है तो वह 'दोसु उड्डकवाडेसु' में होते हुए भी उसे भरत क्षेत्र की सीध में आने पर ही उपपात में गिना जायेगा, अन्यथा नहीं। ___'दोसु उड्डकवाडेसु' के पूर्व पश्चिम, उत्तर - दक्षिण के दोनों कपाटों की अपेक्षा ऊर्ध्व अधो के भंगले में प्रविष्ट जीव अधिक मिल सकते हैं। अत: ऊर्ध्व अधो भंगले में प्रविष्ट जीवों का क्षेत्र है। स्थावर नाल में जो जीव त्रसनाल की सीध तथा अढ़ाईद्वीप की विदिशा में है, वे जीव ही पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण के आरों में प्रविष्ट होते हैं। जो जीव त्रसनाल की विदिशा में है - वे जीव ऊर्ध्व अधो भंगले में आते हैं। त्रसनाल की दिशा की अपेक्षा विदिशा का क्षेत्र अधिक है। अत: ऊर्ध्व अधो भंगले के जीव अधिक मिलेंगे। अधिक जीव आने वाले मिलने से घनता रहेगी तथा कम जीव आने वाले मिलने पर विरलता होगी।
समुग्धाएणं सव्वलोए - समुद्घात की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों के स्थान सर्व लोक में होते हैं। इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये- पूर्वोक्त स्वरूप वाले दोनों ऊर्ध्व कपाटों के मध्य भाग में जो सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि जीव हैं वे बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणांतिक समुद्घात करते हैं उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में उत्कृष्ट लोकान्त तक अपने आत्म-प्रदेशों को फैला देते हैं। जैसा कि आगे अवगाहना संस्थान पद में कहा जाएगा। यथा -
प्रश्न - हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घात किये हुए पृथ्वीकायिक जीव जो कि तैजस कायिकों में उत्पन्न होने वाले हैं उनके तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ?
उत्तर - हे गौतम! विस्तार और मोटाई में शरीर परिमाण तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट लोकान्त तक होती है। ... उसके पश्चात् वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि जीव अपने उत्पत्ति देश (स्थान) तक दण्ड रूप में
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