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दूसरा स्थान पद - वायुकाय स्थान
आदेशों को फैलाते हैं और विग्रह गति में वर्तते हुए और बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक की आयु का वेदन करने के कारण बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहलाते हैं। वे समुद्घात अवस्था में ही विग्रह गति में वर्तते हुए तथा समुद्घात अवस्था में सर्वलोक को व्याप्त करते हैं । अतः इस प्रकार कहा जाता है कि समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में होते हैं।
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दूसरे आचार्यों का कथन है कि बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक जीव बहुत हैं क्योंकि एक-एक पर्याप्तक के आश्रय में असंख्यात अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । वे अपर्याप्तक सूक्ष्म में भी उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म जीव तो सर्वत्र व्याप्त है इसलिए बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक अपने भव के अंत में मारणांतिक समुद्घात करके सर्वलोक को पूर्ण करते हैं अतः समग्र दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा सकल व्यापी कहने में कोई दोष नहीं है ।
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स्वस्थान की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि पर्याप्तक जीवों के आश्रय से अपर्याप्तक जीवों की उत्पत्ति होती है। पर्याप्तक जीवों का स्थान मनुष्य क्षेत्र है जो कि संपूर्ण लोक का असंख्यातवां भाग मात्र है। इसलिए इन्हें लोक के असंख्यातवें भाग में कहना उचित ही है ।
कहते ! हुम उकाइयाणं पज्जत्तगाण य अपजत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोमा ! सुहुम ते काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! ॥ ८५ ॥
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भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म तेजस्कायिक जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सब एक ही प्रकार के हैं अविशेष हैं, अनानात्व हैं । हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गये हैं ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है।
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वायुकाय-स्थान
कहि णं भंते! बायर वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु, सत्तसु घणवायवलएसु, सत्तसु तणुवाएसु, सत्तसु तणुवायवलएसु, अहोलोए पायालेस, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, भवणछिद्देसु, भवणणिक्खुडेसु, णिरएसु, णिरयावलियासु, णिरयपत्थडेसु, णिरयछिद्देसु, णिरयणिक्खुडेसु, उड्डलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, विमापछिस, विमाणणिक्खुडेसु,
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