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प्रज्ञापना सूत्र
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तिरियलोए पाईण-पडीण दाहिण उदीण-सव्वेसु चेव लोगागासछिद्देसु, लोगणिक्खुडेसु य, एत्थ णं बायर-वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु॥८६॥
कठिन शब्दार्थ - तणुवाय वलएसु - तनुवात वलयों में, भवण छिद्देसु - भवनों के छिद्रों में, भवण णिक्खुडेसु - भवनों के निष्कुटों में, लोगागास छिद्देसु - लोकाकाश के छिद्रों में, लोग णिक्खुडेसु- लोक के निष्कुटों में। निष्कुट का अर्थ है खिड़की के समान स्थान । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार खिड़की के चारों तरफ दीवार होती है उसी प्रकार जिन भवनों का अन्तिम विभाग जिसके एक तरफ, दो तरफ या तीन तरफ अलोक आकाश आ गया हो अथवा बाधक स्थान आ गया हो उसको निष्कुट कहते हैं।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनवातों में, सात घनवात वलयों में, सात तनुवातों में, सात तनुवात वलयों में, अधोलोक में- पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, भवनों के छिद्रों में, भवनों के निष्कुट प्रदेशों में, नरकों में, नरकावलियों में, नरकों के पाधडों में और नरकों के निष्कुट प्रदेशों में, ऊर्ध्वलोक में-कल्पों विमानों में, पंक्तिबद्ध विमानों में, विमानों के प्रस्तटों में, विमानों के छिद्रों में, विमानों के निष्कुट प्रदेशों में, तिर्यग्लोक में - पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में समस्त लोकाकाश के छिद्रों में, लोक के निष्कुट प्रदेशों में बादर वायुकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में, समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान हैं।
विवेचन - उपपात, समुद्घात और स्वस्थान तीनों की अपेक्षा से पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीव लोक के असंख्यात भागों में हैं क्योंकि जहाँ भी खाली जगह है - पोल है वहाँ वायु बहती है। लोक में खाली जगह बहुत है इसलिए पर्याप्तक वायुकायिक जीव बहुत अधिक हैं। इस कारण तीनों अपेक्षाओं से बादर पर्याप्तक वायुकायिक जीव लोक के असंख्यात भागों में कहे गये हैं। ___यहाँ पर प्रत्येक में तीन-तीन बोल (आलापक) कह देने चाहिए। जैसे कि भवन, भवन प्रस्तट और भवनछिद्र एवं भवन निष्कुट। मूल पाठ में 'छिद्देसु' शब्द दिया है, जिसका अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है - "यतो यत्र सुषिरं तत्र वायुः" अर्थात् जहाँ जहाँ छिद्र हैं पोल है खाली जगह है वहाँ वहाँ सब जगह वायुकाय है। लोक में भरी हुई जगह की अपेक्षा खाली जगह बहुत है इसीलिए वायुकाय के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों लोक के बहुत भागों में हैं।
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