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दूसरा स्थान पद - बेइन्द्रिय स्थान
काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोएं, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइ भांगे ॥ ९० ॥
भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं वहीं अपर्याप्तक बादर वनस्पति कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं ।
कहि णं भंते! सुहुम वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुम वणस्सइ काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे गविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥ ९१ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहां कहे गये हैं ?
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उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं वे अविशेष (विशेषता रहित) और अनानात्व (भेद रहित ) हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोक व्यापी कहे गये हैं ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है।
बेइन्द्रिय- स्थान
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कहिं णं भंते! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्क देसभागे, अहोलोए तदेक्क देसभागे, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, नदीसु, दहेसु, वावसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वष्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं बेइंदिया पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे ॥ ९२ ॥
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कठिन शब्दार्थ - एक्कदेसभागे एकदेश भाग में ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक बेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
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