Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना
८५
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फरमाते हैं कि - जैसे अग्नि में तपे हुए लोहे का गोला सारा का सारा अग्निमय बन जाता है वैसे ही निगोद रूप एक शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन समझ लेना चाहिए। एक, दो, तीन संख्यात या असंख्यात निगोद जीवों के शरीर छद्मस्थ को दिखाई नहीं दे सकते क्योंकि उनके अलग अलग शरीर ही नहीं है, वे तो अनंत जीवों के पिण्ड रूप ही होते हैं अर्थात् अनन्त जीवों का एक ही शरीर (औदारिक शरीर) होता है छद्मस्थ को केवल अनन्त जीवों के असंख्यात शरीर मिलकर ही दिखाई देते हैं वे भी बादर निगोद जीवों के ही, सूक्ष्म निगोद जीवों के नहीं। क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीवों के असंख्यात शरीर भी छद्मस्थ के दृष्टिगोचर नहीं होते। स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार के सूक्ष्म परिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं।
शंका - यह कैसे जाना जा सकता है कि अनंत निगोद जीवों का एक ही शरीर होता है ?
समाधान - जिनवचनों से ही यह जाना जा सकता है कि अनंत निगोद जीवों का एक ही शरीर होता है। इस विषय में सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंत के वचन ही प्रमाण भूत हैं। भगवान् का कथन है
गोला य असंखिज्जा होंति निगोया असंखया गोले। एक्केको य निगोओ अणंत जीवो मुणेयव्वो॥
अर्थात् - सूई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं। एक एक गोले में असंख्यात असंख्यात निगोद होते हैं और एक एक निगोद में अनंत अनंत जीव होते हैं।
लोगागासपएसे णिओय जीवं ठवेहि इक्किक्कं। एवं मविजमाणा हवंति लोया अणंता उ॥५८॥ लोगागासपएसे परित्तजीवं ठवेहि इक्किक्कं। एवं मविज्जमाणा हवंति लोया असंखिज्जा॥५९॥ पत्तेया पजत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता उ। लोगाऽसंखाऽपजत्तयाण साहारणमणंता॥६०॥ एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया जीवा। सुहुमा आणागिज्झा चक्खुप्फासं ण ते इंति॥६१॥
कठिन शब्दार्थ - लोगागासपएसे - लोकाकाश के प्रदेश में, णिओय जीव - निगोद जीव को, मविजमाणा - मापते हुए, पयरस्स - प्रतर के, पच्चक्खं - प्रत्यक्ष, परूविया - प्ररूपणा की गयी, आणागिज्झा- आज्ञा ग्राह्य, चक्खुप्फासं - चक्षु स्पर्श।
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