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१४४
प्रज्ञापना सूत्र
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जिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेष रूप से होता है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं।
स्वयं तीर्थंकर भगवान् के समीप अथवा तीर्थंकर भगवान् के समीप रह कर पहले जिसने परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार किया है उस साधु के पास यह चारित्र अङ्गीकार किया जाता है। नव साधुओं का गण परिहार तप अङ्गीकार करता है। इनमें चार साधु पहले तप अङ्गीकार करते हैं जो पारिहारिक कहलाते हैं। चार साधु वैयावच्च करते हैं। जो आनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक कल्प स्थित और गुरु रूप में रहता है जिसके पास पारिहारिक (तप करने वाले) और आनुपारिहारिक (वैयावच्च करने वाले) साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) आदि करते हैं। पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते हैं। शिशिर काल (शीतकाल) में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला (चार उपवास) करते हैं। वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला (पांच उपवास) तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक
और एक कल्पस्थित ये पांच साधु प्रायः नित्य भोजन करते हैं। ये उपवास आदि नहीं करते। आयम्बिल के . सिवाय ये और भोजन नहीं करते अर्थात् सदा आयम्बिल ही करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह मास तक तप करते हैं। छह मास तप कर लेने के बाद वे आनुपारिहारिक अर्थात् वैयावच्च करने वाले हो जाते हैं और आनुपारिहारिक (वैयावच्च करने वाले) साधु पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते हैं। यह क्रम भी छह मास तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक को गुरु पद पर स्थित किया जाता है और शेष सात वैयावच्च करते हैं तथा गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है। यह क्रम भी छह मास तक चलता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है। परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु या तो इसी कल्प को पुनः प्रारम्भ करते हैं या जिनकल्प धारण कर लेते हैं या वापिस गच्छ में आ जाते हैं। यह चारित्र छेदोपस्थापनीय चारित्र वालों के ही होता है दूसरों के नहीं।
परिहार विशुद्धि चारित्र के दो भेद हैं-निर्विशमानक और निर्विष्ट कायिक।
तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विशमानक कहलाते हैं और उनका चारित्र निर्विशमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है। ___ तप करके वैयावच्च करने वाले आनुपारिहारिक साधु तथा तप करके गुरु पद पर रहा हुआ साधु निर्विष्ट कायिक कहलाते हैं और उनका चारित्र निर्विष्ट कायिक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है।
४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - सम्पराय का अर्थ कषाय होता है। जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश रहता है, उसे सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहते हैं। '
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