Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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के भाष्य में भी इसी प्रकार की व्याख्या की गई है - इनके चिह्न इस प्रकार है - सूर्य के मुकुट में सूर्य का, इसी प्रकार चन्द्र के मुकुट में चन्द्र का, नक्षत्र के मुकुट में नक्षत्र का, ग्रह के मुकुट में ग्रह का और ताराओं के मुकुट में ताराओं का चिह्न है। इन मुकुटों के चिह्न से जो शोभित है उनको ज्योतिषी देव कहते हैं। ज्योतिषी देवों के पांच भेद हैं यथा - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा। पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के चर (अस्थिर) और अचर (स्थिर) के भेद से दस भेद हो जाते हैं ।
मनुष्य क्षेत्रवर्ती अर्थात् मानुष्योत्तर पर्वत तक अढ़ाई द्वीप में रहे हुए ज्योतिषी देव सदा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए चलते रहते हैं। मानुष्योत्तर पर्वत के आगे रहने वाले सभी ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं ।
प्रज्ञापना सूत्र
प्रश्न- वैमानिक देव किसे कहते हैं ?
उत्तर - विमानों में रहने वाले देवों को वैमानिक देव कहते हैं। वैमानिक शब्द की व्युत्पत्ति "विविध मानयन्ते - उपभुज्यन्ते पुण्य वद्धिजीवैरिति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः ।"
अर्थ - पुण्यवान जीव जिनका उपभोग करते हैं अथवा जिनमें रहते हैं उनको वैमानिक कहते हैं। इनके दो भेद हैं- कल्पोपपत्र और कल्पातीत ।
प्रश्न - कल्पोपपत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर
उन्हें कल्पोपन्न कहते हैं। सौधर्म से लेकर अच्युत तक बारह देवलोक कल्पोपपत्र कहलाते हैं।
प्रश्न- कल्पातीत किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन देवों में इन्द्र, सामानिक आदि की एवं छोटे, बड़े की मर्यादा नहीं है अपितु सभी अहमिन्द्र हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं।
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कल्प शब्द का अर्थ है - मर्यादा अर्थात् जहाँ छोटे, बड़े, स्वामी, सेवक की मर्यादा है।
नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान इस प्रकार यह चौदह प्रकार के देव कल्पातीत कहलाते हैं। ये सब अहमिन्द्र हैं। इनमें सामानिक, लोकपाल आदि का भेद न होने से ये सब अपने आप को इन्द्र समझते हैं। इसलिये " अहम् (मैं) इन्द्र इति अहमिन्द्र" शब्द की व्यत्पत्ति होती है ।
॥ पण्णवणाए भगवईए पढमपयं समत्तं ॥ ॥ भगवती प्रज्ञापना का प्रथम पद समाप्त ॥
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