Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजड़ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइ भागे॥७९॥ __कठिन शब्दार्थ - ठाणा - स्थान, सट्ठाणेणं - स्वस्थान की अपेक्षा से, पायालेसु - पातालों में, भवणपत्थडेसु - भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, णिरयावलियासु - नरकावलियों में, पब्भारेसु - प्राग्भारों में, वेलासु - वेलाओं में, वेइयासु - वेदिकाओं में।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौमत! स्व स्थान की अपेक्षा से वे आठ पृथ्वियों में हैं। वे इस प्रकार हैं - १. रत्नप्रभा में २. शर्कराप्रभा में ३. वालकाप्रभा में ४. पंक प्रभा में ५. धम प्रभा में ६. तम प्रभा में ७. तमस्तम प्रभा में और ८. ईषत प्राग्भारा पृथ्वी में। अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, नरकों में, नरकावलियों में और नरक के प्रस्तटों (पाथड़ों) में। ऊर्ध्वलोक में - कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों में और विमान के प्रस्तटों (पाथड़ों) में। तिर्यक्लोक में, टंकों में, कूटों में, शैलों में, शिखरवाले पर्वतों में, प्राग्भारों में, विजयों में, वक्षस्कार पर्वतों में, वर्षों में, वर्षधर पर्वतों में, वेलाओं मे, वेदिकाओं में, द्वारों में, तोरणों में, द्वीपों में और समुद्रों में इन बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में सूत्रकार ने पृथ्वीकायिक आदि जीवों की प्ररूपणा की है और इस दूसरे पद में इन जीवों के स्थान आदि की प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार प्रथम एवं दूसरे पद का संबंध है। प्रस्तुत सूत्र में बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है।
मूल पाठ में आये हुए कठिन शब्दों का अर्थ और उनका विवेचन इस प्रकार है -
रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ तो अधोलोक में है और इषत्प्राग्भारा पृथ्वी ऊर्ध्व लोक में है। इस से अलोक देशोन एक योजन दूर है उस योजन के चौबीस विभाग किये जाय तो तेईस भाग तो खाली है और ऊपर के एक भाग में सिद्ध भगवन्तों के आत्म प्रदेश हैं। अधोलोक में लवणे समुद्र में ७८८८ पाताल कलश हैं। उनकी भित्तियाँ वज्ररत्न की है। अतएव वे पृथ्वीकाय हैं। भवन का अर्थ है भवनपति देवों के निवास स्थान। भवन प्रस्तट का अर्थ है भवन की भूमिका अर्थात् भवनों के बीच का स्थान। नरक का अर्थ है प्रकीर्ण रूप नरकावास। नरकावली का अर्थ है आवलिका प्रविष्ट नरकावास। नरक प्रस्तट का अर्थ है नरक भूमि। ऊर्ध्व लोक में अर्थात् सौधर्म आदि बारह देवलोक। विमान का अर्थ है ग्रैवेयक सम्बन्धी प्रकीर्णक देवलोक। विमान आवलिका का अर्थ है, आवलिका प्रविष्ट विमान । विमान प्रस्तट का अर्थ है विमान भूमि तथा विमानों का अन्तराल। ऊर्ध्व लोक में यह सब बादर पर्याप्तक जीवों के स्व स्थान है। तिर्खा लोक में टंक-छिन्न पर्वतों के टूटे हुए भाग, कूट-सिद्धायतन आदि, शैल-शिखर रहित पर्वत, शिखरी
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