Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिज्ज संकासो । सव्वो अगणिपरिणओ णिगोयजीवे तहा जाण ॥ ५६ ॥ एगस्स दोह तिह व संखिज्जाण व ण पासिउं सक्का । दीति सरीराइं णिओयजीवाणं अणंताणं ॥ ५७ ॥
कठिन शब्दार्थ- सरीरणिव्वत्ती - शरीर निष्पत्ति, आणुग्गहणं- प्राणानपान ग्रहण, ऊसास - णीसासेउच्छ्वास-नि:श्वास, अयगोलो - लोहे का गोला, तत्ततवणिज्जसंकासो - तपे हुए सोने के समान ।
भावार्थ - एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीर निष्पत्ति ( शरीर रचना) एक ही काल में होती है एक साथ प्राणानपान ग्रहण - श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है और एक साथ ही उच्छ्वास निःश्वास होता है ॥ ५३ ॥
एक जीव का जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण होता है वही बहुत से साधारण जीवों का होता है और जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण बहुत से जीवों का होता है वही संक्षेप से एक का ग्रहण होता. है ॥ ५४ ॥
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साधारण जीवों का साधारण आहार और साधारण श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों का ग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास भी साधारण होता है। यह साधारण जीवों का लक्षण है ॥ ५५ ॥
जैसे अग्नि में अत्यंत तपाया हुआ लोहे का गोला तपे हुए सोने के गोर्ले के समान सारा अग्नि परिणत (अग्निमय) हो जाता है उसी प्रकार निगोद के जीवों के संबंध में जानना चाहिये ॥ ५६ ॥
एक, दो, तीन यावत् संख्यात (अथवा असंख्यात) बादर निगोद जीवों के शरीर को देखना संभव नहीं किन्तु अनंत जीवों के असंख्यात शरीर मिलकर ही दिखाई देते हैं ॥ ५७ ॥
विवेचन - साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहार आदि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही उस शरीर के आश्रित बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है इसी प्रकार बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है। क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर में आश्रित होते हैं । यहाँ गाथा में 'इक्कस्स' व 'बहुणं' शब्द दिया है इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये - यहाँ पर एक जीव को अलग ग्रहण किया है। इसलिए इसके सिवाय शेष जीव बहुत ही होंगे, सब नहीं। क्योंकि सबसे वह जीव अलग बताया गया है तथा गाथा में आया हुआ 'बहुणं' शब्द का प्रयोग भी इसी अर्थ का सूचक है।
एक निगोद शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन कैसे होता है ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार
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