Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१०१ *****************************************************************************
प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना
*******
वासुदेवों के स्कन्धावारों में, बलदेवों के स्कन्धावारों में, माण्डलिकों के स्कन्धावारों में, महामाण्डलिकों के स्कन्धावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगमनिवेशों में, खेटनिवेशों में, कर्बटनिवेशों में, मडम्बनिवेशों में, द्रोणमुखनिवेशों में, पट्टणनिवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, सम्बाधनिवेशों में और राजधानी निवेशों में, इन निवेशों (स्थानों का जब विनाश होने वाला हो तब इन स्थानों में आसालिका सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्रा की अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से उत्पन्न होते हैं। अवगाहना के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फोड़ कर उत्पन्न होता है। वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अंतर्मुहूर्त की आयु भोग कर काल कर जाता है। इस प्रकार आसालिका कहा है।
विवेचन - आसालिया शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं - आसालिका और आसालिगा। आसालिका (आसालिगा) गर्भज नहीं किंतु सम्मूर्छिम होता है। इसकी उत्पत्ति अढाई द्वीपों में होती है लवण समुद्र या कालोदधि समुद्र में नहीं। किसी प्रकार के व्याघात के अभाव में वह १५ कर्मभूमियों में उत्पन्न होता है। अर्थात् यदि ५ भरत एवं ५ ऐरवत क्षेत्रों में व्याघात हेतुक सुषम-सुषम आदि रूप या दुःषम-दुःषम आदि रूप काल व्याघात कारक न हों तो १५ कर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति होती है। यदि ५ भरत और ५ ऐरक्त क्षेत्र में पूर्वोक्तानुसार कोई व्याघात हो तो फिर वहां उत्पत्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में पांच महाविदेह क्षेत्रों में उत्पन्न होता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि तीस अकर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति नहीं होती तथा १५ कर्मभूमियों एवं महाविदेहों में भी इसकी सर्वत्र उत्पत्ति नहीं होती किन्त चक्रवर्ती. बलदेव आदि के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में वह उत्पन्न होती है। इसके अलावा ग्राम निवेश यावत् राजधानी निवेश तक में से किसी में भी इसकी उत्पत्ति होती है। स्कन्धावारों या निवेशों के विनाशकाल में उनके नीचे की भूमि को फोड कर उसमें से आसालिका उत्पन्न होती है। आसालिका की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की उत्कृष्ट बारह योजन की होती है। आसालिका असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होती है इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है।
आसालिका शब्द यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से स्त्रीलिंग शब्द है-गंगा शब्द की तरह। किन्तु. आगम की दृष्टि से यह नपुंसक लिंग और नपुंसक वेदी एक जानवर होता है। जब चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा और महामाण्डलिक राजा इनकी पुण्यवानी में कमी आती है तब जहाँ इन राजाओं की सेना ठहरी हुई होती है उस भूमि को फोड़कर यह आसालिका जानवर सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होता है और अन्तर्मुहूर्त में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तब उस आसालिका की जगह बनी पोली भूमि में वह सेना धस जाती है। इस प्रकार उन सब सैनिकों की मृत्यु हो जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org