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प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना (मनुष्य भेद)
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उत्तर - आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-ऋद्धि प्राप्त आर्य और अनृद्धि प्राप्त आर्य। प्रश्न - ऋद्धि प्राप्त आर्य कितने प्रकार के कहे हैं ?
उत्तर - ऋद्धि प्राप्त आर्य छह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अरहंत-अर्हत् (तीर्थंकर) २. चक्रवर्ती ३. बलदेव ४. वासुदेव ५. चारण और ६. विद्याधर। यह ऋद्धि प्राप्त आर्य का वर्णन हुआ।
प्रश्न - अनृद्धि प्राप्त आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
उत्तर - अनृद्धि प्राप्त आर्य नव प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. क्षेत्रार्य २. जाति आर्य ३. कुलार्य ४. कर्मार्य ५. शिल्पार्य ६. भाषार्य ७. ज्ञानार्य ८. दर्शनार्य और ९. चारित्रार्य।
विवेचन - जो सभी हेय धर्मों से दूर हो चुके हैं तथा उपादेय धर्म को प्राप्त है वे आर्य कहे जाते हैं। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये 'आरात याति इति आर्यः' जो दूर से जाता है जैसे क्षेत्र आर्य में अनार्य क्षेत्र से दूर जाना अर्थात् आर्य क्षेत्र में रहने वाले। इस प्रकार अर्थ करने से आर्य के सभी भेदों में यह अर्थ घटित हो सकता है। जिसमें ज्ञान दर्शन और चारित्र ग्रहण करने की योग्यता हो उसे आर्य कहते हैं। इसके दो भेद हैं - ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त।
जो व्यक्ति अरहन्त, चक्रवर्ती आदि ऋद्धियों को प्राप्त कर लेता है, उसे ऋद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं। आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने आदि के कारण जो पुरुष आर्य कहा जाता है उसे अनृद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्य के छह भेद हैं -
१. अर्हन्त (अरिहन्त) - जो देवों द्वारा बनाये हुए आठ महाप्रातिहार्य (अशोक वृक्ष आदि) रूप पूजा के योग्य हैं तथा वन्दन नमस्कार एवं सत्कार के योग्य हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, चार तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं और जो सिद्धि गमन के योग्य हैं उनको 'अर्हन्त (अर्हत्)' कहते हैं अथवा अरि-आत्म शत्रुओं को (चार घाती कर्मों को) हंत-नाश करने वालों को 'अरिहन्त' कहते हैं।
२. चक्रवर्ती - चौदह रत्न और छह खण्डों के स्वामी चक्रवर्ती कहलाते हैं, वे सर्वोत्कृष्ट लौकिक समृद्धि सम्पन्न होते हैं।
३. वासुदेव - सात रत्न और तीन खण्डों के स्वामी वासुदेव कहलाते हैं। वे भी अनेक प्रकार की ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं।
४. बलदेव - वासुदेव के बड़े भाई बलदेव कहे जाते हैं। वे कई प्रकार की ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं। बलदेव से वासुदेव और वासुदेव से चक्रवर्ती की ऋद्धि दुगुनी-दुगुनी होती है। तीर्थंकर की आध्यात्मिक ऋद्धि चक्रवर्ती से अनन्त गुणी होती है।
५. चारण - आकाश गामिनी विद्या जानने वाले चारण कहलाते हैं। जंघाचारण और विद्याचारण के भेद से चारण दो प्रकार के हैं। चारित्र और तप विशेष के प्रभाव से जिन्हें आकाश में आने जाने की
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