Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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पूर्वाचार्यों की धारणा है कि वर्तमान में जितनी दुनिया दिखाई दे रही है वह सब भरत क्षेत्र के मध्य खण्ड में है। क्षेत्र की अपेक्षा वर्तमान में भारत देश एवं उसके बाहर पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बंगलादेश, श्रीलंका आदि आर्य देशों में होने की संभावना है। वर्तमान के समुद्रों में भी आर्य क्षेत्र का हिस्सा हो सकता है। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है। "आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तो गुणैः इति। पापकर्मबहिर्भूतत्वेन अपापः।"
अर्थ - जो सब पापों से दूर रहता है, उसे आर्य कहते हैं। सब पापों से दूर रहने के कारण उसका दूसरा नाम अपाप है। यह व्युत्पत्ति सिर्फ ज्ञान आर्य, दर्शन आर्य और चारित्र आर्य में घटित होती है। इसी से आत्मा का कल्याण सधता है। इसीलिये इनको भाव आर्य कहते हैं बाकी दूसरे क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य आदि द्रव्य आर्य हैं। इन से आत्म-गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि इनमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र की नियमा नहीं है।
से किं तं जाइ आरिया? जाइ आरिया छव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - अंबट्टा य कलिंदा विदेहा वेदगा इय। हरिया चुंचुणा चेव छ एया इब्भ जाइओ॥ से तं जाइ आरिया॥६७॥ कठिन शब्दार्थ - इब्भ जाइओ - इभ्य जातियाँ। भावार्थ - प्रश्न - जाति आर्य कितने प्रकार के कहे हैं ?
उत्तर - जाति आर्य छह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अम्बष्ठ २. कलिन्द ३. विदेह ४. वेदग ५. हरित और ६. चुंचुण। ये छह इभ्य जातियाँ हैं। इस प्रकार जाति आर्य कहे गये हैं।
विवेचन - मातृ-पक्ष को 'जाति' कहते हैं। जाति से जो आर्य-निर्दोष हो, उनको 'जाति-आर्य' कहते हैं अर्थात् जिनका मातृ-पक्ष निर्मल हो, वे जाति-आर्य कहलाते हैं। जिनके अंबष्ठ आदि छह भेद हैं। इन भेदों के भिन्न-भिन्न अर्थ टीकाकार ने नहीं दिये हैं। कोशकार ने 'जाति विशेष' ऐसा अर्थ दिया है। अतः छह ही भेदों का अर्थ निर्मल मातृ-पक्ष वाले समझना चाहिए।
आज (वर्तमान) की सभी श्रेष्ठ जातियों का इनमें समावेश हो जाता है। आगमकार तो इन नामों से बताते हैं अभी दूसरे नाम हो सकते हैं। फिर भी इन्हीं में समाविष्ट समझना चाहिये। जाति आर्य में स्त्रियों की प्रधानता एवं कुल आर्य में पुरुषों की प्रधानता है। आगम काल में स्त्रियों की जाति अलग
और पुरुषों की अलग होती थी। जातियों में कुल और कुल में जातियाँ, अन्तर्भावित है। भगवान् आदिनाथ के समय से जाति, कुल की व्यवस्था है। घोड़ी जाति सम्पन्न है (ठाणाङ्ग टीका में उदाहरण दिया है)। लोकोक्ति है - राईको (रेबारी-देवासी) में स्त्रियाँ होशियार होती है। वैसे ही किसी में
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