Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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८६
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प्रज्ञापना सूत्र
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भावार्थ - लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर यदि एक एक निगोद जीव को स्थापित किया जाय और उनका माप किया जाय तो अनन्त लोक हो जाते हैं ॥ ५८ ॥
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लोकाकाश के एक एक प्रदेश ऊपर प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक एक जीव को स्थापित किया जाय और उन्हें मापा जाय तो असंख्यात लोक होते हैं ॥ ५९ ॥
प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्त जीव प्रतर के असंख्यात भाग मात्र अर्थात् लोक के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश हैं उतने होते हैं तथा अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव असंख्यात लोक के बराबर है और साधारण जीव अनन्त लोक (लोकाकाश) परिमाण है ॥ ६० ॥
इस प्रकार प्ररूपित किये गये बादर निगोद जीव शरीरों के द्वारा प्रत्यक्ष है किन्तु सूक्ष्म निगोद जीव केवल आज्ञा ग्राह्य है क्योंकि ये आँखों से दिखाई नहीं देते ॥ ६१ ॥
यहाँ पर गाथा में आये हुए 'चक्खुप्फासं' शब्द से मात्र आँखों से दिखना नहीं समझ कर उपलक्षण से सभी इन्द्रियों से ग्रहण होना समझना चाहिये। अर्थात् सूक्ष्म जीव पांचों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते हैं।
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विवेचन - निगोद जीवों के रहने के स्थान को 'निगोद' कहते हैं। अर्थात् निगोद जीवों का घर और उसमें रहने वाले जीवों को 'निगोदिया जीव' कहते हैं। एक एक घर (निगोद) में अनंत अनंत निगोदिया जीव रहते हैं । पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में अण्ठाणु बोल का अल्पबहुत्व बतलाया गया है । उसमें निगोद का बोल ५४ (चौपन्न) का आया है। जबकि निगोदिया जीवों का बोल ८८ (इठयासी) आया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि निगोद के घर से निगोदिया जीव अनन्ता अनन्त गुणा अधिक हैं। अर्थात् बोल नं. ५४, ६०, ७३, ७४ ये चार बोल निगोद (शरीर) की अपेक्षा से है और ८८ वाँ बोल निगोदिया जीवों की अपेक्षा हैं ।
आगमों में वर्णित कितनेक पदार्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध कर स्पष्ट दिखाए जा सकते हैं। किन्तु कितनेक पदार्थ ऐसे हैं जो छद्मस्थ को दिखाये नहीं जा सकते। ऐसे पदार्थों को वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही स्वीकार करने पड़ते हैं। उनको आज्ञा ग्राह्य कहते हैं। क्योंकि वीतरागों के वचन असत्य नहीं होते हैं जैसा कि कहा है
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रागाद् वा द्वेषाद् वा, मोहाद् वा वाक्य मुच्यते ह्यनृतम् ।
यस्तु नैते दोषाः तस्य अनृत कारणं किं स्यात् ॥
अर्थ - जिस पुरुष में मोहनीय कर्म की प्रकृति रूप राग और द्वेष होते हैं उसका वचन असत्य भी हो सकता है किन्तु जिनमें राग-द्वेष नहीं अतएव वे वीतराग हैं अतः उनके असत्य बोलने का कोई कारण नहीं है कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। अतः उनके वचन सदा सर्वदा और सर्वथा सत्य ही होते हैं।
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