Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम प्रज्ञापना पद - बेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना
शंबुक, मातृवाह, शुक्तिसंपुट, चंदनक, समुद्रलिक्षा । अन्य जितने भी इसी प्रकार के जीव हैं उन्हें बेइन्द्रिय समझना चाहिये। ये सभी सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं। ये संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैंपर्याप्त और अपर्याप्त । इन पर्याप्त और अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीवों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। यह बेइन्द्रिय संसार समापन्नक जीवों की प्रज्ञापना हुई ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बेइन्द्रिय जीवों का निरूपण किया गया है। इन बेइन्द्रिय जीवों के अलावा अन्य इसी प्रकार जो जीव हैं वे सभी बेइन्द्रिय जानना चाहिए । मृत कलेवर में पैदा होने वाले कृमिकीट आदि बेइन्द्रिय होते हैं और ये सभी सम्मूच्छिम होते हैं । सम्मूच्छिम होने के कारण ये नपुंसक होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है - "नारकसंमूच्छिनो नपुंसकानि" ( अ. २ सूत्र. ५० ) नारक और सम्मूच्छिम नपुंसक होते हैं।
1
बेइन्द्रिय (सभी पर्याप्त और अपर्याप्त ) जीवों के योनि प्रमुख योनि से उत्पन्न हुए सात लाख करोड जाति कुल होते हैं - इस प्रकार तीर्थंकरों ने कहा है। जाति, कुल और योनि के स्वरूप को समझने के लिए पूर्वाचार्यों ने स्थूल, उदाहरण बताया है जो इस प्रकार हैं- जाति अर्थात् बेइन्द्रिय जाति, उसके कुल हैं - कृमि, कीट, वृश्चिक (बिच्छू) आदि । ये कुल योनि प्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं जैसे एक ही छाण (गोबर या कंडे) की योनि में कृमिकुल, कीटकुल और • वृश्चिककुल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जाति कुल के योनि प्रवाह होते हैं। इस प्रकार बेइन्द्रियों के सात लाख करोड़ जाति कुल होते हैं।
मूल पाठ में बेइन्द्रिय जीवों के जो नाम गिनाए गये हैं उनमें कितनेक नाम प्रसिद्ध हैं और कितने ही नाम अप्रसिद्ध हैं। देश विशेष में ये प्रसिद्ध हो सकते हैं । गोबर योनि है। इसमें अनेक कुल पैदा हो सकते हैं। गोबर में बेइन्द्रिय जीव तो पैदा होते ही है किन्तु बिच्छू जो कि चतुरिन्द्रिय जीव है। वह बिच्छू का कुल भी गोबर में पैदा हो सकता । बिच्छू भी अनेक प्रकार के होते हैं। इसलिए बिच्छू का कुल कहा है।
बेइन्द्रिय जीत्रों में 'जलोक' एक नाम आया है यह एक जल में रहने वाला बेइन्द्रिय जीव है। इसकी प्रकृति ऐसी होती है कि किसी के फोड़ा फुन्सी होकर खराब खून इकट्ठा हो गया हो तो इस जलोक को उस खराब खून की जगह लगाया जाता है तो वह खराब खून को चूस लेता है किन्तु उसके पास में रहे हुए अच्छे खून को नहीं चूसता है इसीलिये दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष को जलोक की उपमा दी यी है। जैसा कि कहा है
गुण को उगी हे, गुण न कहे खल लोक ।
८९
*****
रक्त पीये पयना पीये, लगी पयोधर जोक ॥
अर्थ - दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष का यह स्वभाव होता है कि अनेक गुणों वाले गुणी पुरुष में से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org