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यह मैंने देखा है। जिन लोगों में आकस्मिक बुद्धत्व का साहस है, वे जिस शिखर को उपलब्ध होते हैं, उसे क्रमिक रूप से विकसित होने वाले कभी अनुभव नहीं कर पाते। वे भी पहुंच जाते हैं उस शिखर तक, लेकिन वे इतने चरण-दर-चरण पहुंचते हैं, वे सारे अंतराल को बांट देते हैं बहुत से हिस्सों में, कि वह बात कभी आनंद-उत्सव नहीं बनती। वे भी पहुंचते हैं उसी शिखर तक...।
तुम देखो। मीरा नाचती है। चैतन्य दीवाने हैं और नाचते हैं और गाते हैं। और योगी? नहीं, वे कभी नाचते नहीं, वे कभी गाते नहीं, क्योंकि वे इतने क्रमिक रूप में पहुंचते हैं कि वह बात कभी बहुत आनंद का अनुभव नहीं बनती, बिलकुल नहीं। वे इतने क्रमिक रूप से पहुंचते हैं! वे आनंद को उपलब्ध होते हैं हिस्सों में। वे इसे मात्राओं में पाते हैं-छोटी खुराकें, होम्योपैथी की खुराकें–कि दूसरी खुराक मिलने के पहले ही पहली खुराक आत्मसात हो जाती है। वे पचा गए होते हैं उसे। फिर मिलती है दूसरी खुराक-उसे भी तीसरी के पहले ही पचा लिया जाता है। वे नृत्य नहीं कर सकते। तुम योगी को नृत्य करते हुए नहीं पा सकते। वह चूक गया है कुछ। वह पहुंच तो गया है उसी शिखर तक, लेकिन मार्ग में कुछ खो गया है।
मैं तो सदा छलांग के ही पक्ष में हूं। क्योंकि जब तुम्हें पहुंचना ही है, तो क्यों न नृत्य करते हुए पहुंचो? तब तुम्हें पहुंचना ही है, तो क्यों न प्राणों में आनंद लिए पहुंचो? योगी दुकानदार मालूम पड़ते हैं-गणित बिठाते, हिसाबी-किताबी-प्रेमियों की भाति पागल नहीं। लेकिन रास्ते दोनों खुले हैं। और चुनाव तुम पर निर्भर करता है।
यह ऐसा है जैसे तुम्हारी लाटरी लग जाए-दस लाख रुपए की। और फिर तुम्हें एक रुपया दिया जाए, फिर और एक रुपया, फिर और एक रुपया; धीरे-धीरे तुम सब पा जाते हो, लेकिन तुम्हें एक साथ दस लाख रुपए कभी नहीं दिए जाते और तुम्हें कभी पता नहीं लगने दिया जाता कि तुम्हें दस लाख रुपए मिलेंगे। तुम्हें मिलेंगे दस लाख रुपए, लेकिन युग बीत जाएंगे और तुम सदा भिखारी ही रहोगे : जेब में वही एक रुपया! तुम जब तक उस एक रुपए का उपयोग न कर लो, उसके पहले दूसरा न दिया जाएगा; जब तुम उसका उपयोग कर लो तब तीसरा दिया जाएगा।
अचानक बुद्धत्व का अपना एक सौंदर्य होता है, एक असीम सौंदर्य होता है कि अचानक तम्हें दे दिए गए दस लाख रुपए। तुम नृत्य कर सकते हो। लेकिन यदि तुम्हारा हृदय कमजोर है तो बेहतर है धीरे-धीरे बढ़ना।
मैंने सुना है, ऐसा हुआ : एक आदमी हमेशा ही लाटरी की टिकटें खरीदता था और जैसा कि होता है उसे कभी कोई इनाम नहीं मिला। वर्षों गुजर गए लेकिन यह बात एक यांत्रिक आदत बन गई थी। हर महीने वह अपनी तनख्वाह में से कुछ टिकटें खरीद लेता था। लेकिन एक दिन घटना घट गई। वह आफिस में था और पत्नी को खबर मिली कि उसकी मनोकामना पूरी हो गई है-दस लाख रुपए। वह