Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 03
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 411
________________ होते हैं, अलग-थलग होते हैं, मिल नहीं सकते। जब नदी बहती है तो किनारे मिलते हैं नदी के द्वारा, नदी में। जब गुरु और शिष्य का मिलन होता है तो वहां कोई गुरु नहीं होता, कोई शिष्य नहीं होता। दो नहीं होते; वहां दवैत नहीं बचता। फिर 'एक' ही होता है अपने समग्र अकेलेपन में, अपने परम एकांत में। दो तो नहीं मिल सकते, लेकिन यदि दो मिट जाते हैं, तो वह सौभाग्य की घड़ी मौजूद हो जाती है। कठिन है कि उसे क्या कहें। यदि मैं उसे मिलन की घड़ी कहता हूं तो तुम गलत समझोगे, क्योंकि मिलन कहने में ही दो का खयाल आता है। यदि मैं इसे मिलन नहीं कहता, तो असंभव होगा मेरे लिए इसे कुछ और कहना। यही तकलीफ है भाषा के साथ। लेकिन फिर भी तुम समझ सकते हो, यदि तुम मुझे सहानुभूति से सुनते हो-और दूसरा कोई उपाय नहीं सुनने का-यदि तुम मेरे रन। न गहन संवाद में हो, मेरे साथ किसी समस्या पर बहस करने की कोशिश नहीं कर रहे हो, बल्कि इसके विपरीत मेरी कठिनाई को समझने की कोशिश कर रहे हो कि जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता उसे मैं व्यक्त कर रहा हूं एक गहन सहानुभूति -उसे ही श्रद्धा कहते हैं – तब तुम समझ सकते हो कि ये शब्द धोखा न देंगे, तब वे बाधा नहीं बनेंगे। तब वे संकेत बन जाते हैं, तब उनमें एक सार्थकता होती है-अर्थ नहीं, सार्थकता-क्योंकि तुम्हें उनके द्वारा एक झलक मिल सकती है। तुम जानते हो कि शब्द स्थूल हैं। सारे शब्द स्थूल हैं। भाषा स्थूल है, मौन ही सूक्ष्म है। लेकिन यदि तुम मुझे गहन श्रद्धा से, गहन आस्था से समझते हो, तो शब्द भी मौन की कुछ सुगंध ले आते हैं। तो मुझे समझने की कोशिश करो : दो नहीं मिल सकते, असंभव है; और दो मिल सकते हैं, लेकिन तब वे दो नहीं रह जाते। जब मैं कहता हूं-अंतस से अंतस का मिलन, तो मेरा मतलब है. अब न प्रेमी रहा और न प्रेयसी। दोनों खो जाते हैं, दोनों मिट जाते हैं, कहीं अंतस में वे एक हो जाते हैं। उस गहन मौन में केवल प्रेम होता है, प्रेमी नहीं होते। जब गुरु और शिष्य साथ होते हैं, तब यदि शिष्य मिटने के लिए तैयार है... क्योंकि गुरु तो वही है, जो पहले ही मिट चुका है, जो एक शून्य है। यदि शिष्य भी तैयार है गुरु की शून्यता के साथ बहने के लिए बिना किसी माग के, बिना किसी इच्छा के, क्योंकि वे बातें तुम्हें मिटने नहीं देंगी-यदि शिष्य तैयार है शून्यता का हिस्सा बनने के लिए बिना किसी संदेह, बिना किसी झिझक के, तो वह शून्यता दोनों को घेर लेती है। वह आच्छादित कर लेती है दोनों को। शून्यता की उस बदली में दोनों खो जाते हैं। वही है अंतस से अंतस का मिलन। यह एक अर्थ में तो मिलन है, बड़े से बड़ा मिलन है; और मिलन नहीं भी है, क्योंकि मिलने के लिए दो मौजूद नहीं होते। यह बात विरोधाभासी लगती है कि कभी मैं कहता हूं कि तुम नितांत अकेले हो, और कभी मैं कहता हं कि मिलन की संभावना है। कब होती है वह संभावना? जब तुम कोशिश नहीं कर रहे होते हो मिलने की, तो मिलन की संभावना होती है। यदि तुम मिलने का प्रयास कर रहे हो तो वह प्रयास ही

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