Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 03
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 415
________________ एक मुस्कुराहट जरूर चली आई होगी उनके चेहरे पर, बदलिया छंट गईं, वे विश्रांत हुए। और उन्होंने कहा, 'प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो। कृपा करके मेरी चिंता न लें। मत सुनें मेरे मूढ मन की। मैं कौन होता हूं कहने वाला कि क्या होना चाहिए? मैं कौन होता हूं अपेक्षा रखने वाला? और जब तू है तो मैं क्यों कोई चिंता करूं?' उस समर्पण में ही जीसस क्राइस्ट' हो गए। वे फिर मरियम और जोसेफ के बेटे न रहे। वे परमात्मा के बेटे हो गए। रूपांतरित, परिवर्तित, एक नई अंतस सत्ता का जन्म हुआ जिसका स्वीकार- भाव समग्र है। अब कहीं कोई समस्या नहीं है। यदि परमात्मा की मर्जी है कि उन्हें सूली लगे, तो यही ठीक हैऔर यह है चमत्कार! और वस्तुत: सूली चमत्कार प्रमाणित हुई! आज ईसाइयत क्रॉस कारण ही है, क्राइस्ट के कारण नहीं। यदि वे उस दिन बच जाते तो हमने उन्हें एक जादूगर या बाजीगर की भांति याद रखा होता। लेकिन उस गहन समर्पण में, जहां सारी शिकायतें खो जाती हैं, अस्तित्व से अस्तित्व का मिलन घटित हुआ : उन्होंने परमात्मा को अवतरित होने दिया, अपने को पोंछ दिया। इसी भांति-मृत्यु द्वारा, समर्पण द्वारा-वे पुनरुज्जीवित हुए। फिर वे वही न रहे जो सूली लगने के पहले थे। एक नवजीवन-पूरी तरह नए, निर्दोष, निर्मल-स्व नए जीवन का आविर्भाव हुआ। पुराना विदा हो गया, नए ने जन्म लिया, और इन दोनों में कहीं कोई सातत्य नहीं है। तुम मुझ से पूछते हो कि यदि जीवन अस्तित्व की एक आनंदपूर्ण लीला है, तो फिर क्यों.. .तो फिर इतना दुख क्यों है? दुख है क्योंकि तुम अभी अस्तित्व की लीला का हिस्सा नहीं हो। तुम्हारा अपना एक छोटा-मोटा नाटक है, और तुम उसे खेलना चाहते हो। तुम समग्र अस्तित्व के हिस्से नहीं हो; तुम कोशिश कर रहे हो अपना ही छोटा सा संसार बनाने की। प्रत्येक अहंकार अपना अलग संसार बना लेता है; यही समस्या है। समग्र के साथ बहो, और दुख मिट जाता है। दुख सूचक है : वह बताता है कि तुम जरूर समग्र के साथ लड़ रहे हो, बस इतना ही। तुम अतीत में किए अपने पापों के कारण दुख नहीं भोग रहे हो। तुम दुख भोग रहे हो उस पाप के कारण जो तुम अभी कर रहे हो। एक ही पाप है : संघर्ष, द्वंद्व, स्वीकार न करना। अंग्रेजी का शब्द 'सिन' जिस मूल धात् से आता है उसका अर्थ है. 'अलग होना'|'सिन' शब्द का ही अर्थ होता है अलग होना। तुम अलग हो गए हों-वही एकमात्र पाप है। जब तुम फिर जुड़ जाते हो, तो पाप तिरोहित हो जाता है। सारी ईसाइयत पाप की इस धारणा पर खड़ी है कि मनुष्य अलग हो गया है परमात्मा से, इसीलिए वह पापी है। ठीक इसके विपरीत है पतंजलि की धारणा-विपरीत है, फिर भी पूरक है-वे जोर देते हैं 'योग' पर, जुड़ने पर।

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