________________ प्रति खुले हो जाते हो। प्रकृति के प्रति खुलने से तुम अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो। और मेरे देखे, अस्तित्व ही ईश्वर है। छठवां प्रश्न : आप क्यों जोर देते हैं कि हमें सीधे सातवें चरण- ध्यान- पर छलांग लगा देनी चाहिए और फिर दूसरे चरण पूरे करने चाहिए ताकि समग्र समाधि उपलब्ध हो? एक खास कारण है। मैं जोर देता हूं कि पहले ध्यान में छलांग लगा दो और फिर दूसरे चरण पूरे करो, क्योंकि तुमने ध्यान का स्वाद बिलकुल ही खो दिया है। इस कदर खो दिया है कि जब तक तुम एक बार स्वाद को अनुभव न कर लो, तब तक तुम दूसरी चीजों को पूरा करने का कष्ट ही नहीं उठाओगे। पतंजलि के समय में ध्यान एक अनभव की बात थी। प्रत्येक व्यक्ति ध्यान करता था। प्रत्येक बच्चे को भेजा जाता था गुरुकुल में, जंगल के आश्रमों में। वहां बुनियादी शिक्षा ध्यान की थी; शेष सब गौण था। जब वह पच्चीस वर्ष का होता तो समाज में वापस आ जाता, मगर उसने ध्यान की कला सीख ली होती। वह रहेगा बाजार में, पर ध्यान के साथ। पचास वर्ष की उम्र तक वह फिर तैयार हो जाता वापस जंगल जाने के लिए। और पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक आते-आते वह ध्यान के लिए ही पूरा समय समर्पित करने लगता। तो अगर तुम पूरी जीवन-अवधि को देखो, अगर सौ वर्ष की उम्र मानें : तो पहले के पच्चीस वर्षों में, आरंभ में, ध्यान का स्वाद दे दिया जाता था-तुम जान लेते थे उसके सौरभ को, उसकी सुवास को। तुम जान लेते उसके सौंदर्य को, उसके अहोभाव को, आनंद को-और तब तुम आते संसार में। अब तुम कभी न बनोगे संसार का हिस्सा। तुम जानते हो, वहां जंगल में कोई सुंदर चीज अस्तित्व रखती है। तुमने जान लिया होता है एकांत को; अब भीड़ में, संसार में रहते हुए, तुम कभी पूरे चैन से न रहोगे। तुमने चख लिया परम स्वाद. अब बाकी के सारे स्वाद मूल्यहीन हो गए। तुम रहोगे संसार में एक कर्तव्य की तरह। ऐसा ही हिंदू-शास्त्र कहते हैं कि व्यक्ति को संसार में जीना चाहिए कर्तव्य की तरह। तुम्हारे मातापिता ने तुम्हें पैदा किया : तुम्हारे ऊपर एक कर्तव्य है, तुम्हें दूसरों को जन्म देना है, ताकि समाज और उसकी श्रृंखला निरंतर चलती रहे और धारा बहती रहे-तुम्हें धारा पर रोक नहीं लगानी है।