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स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं और तुम सजग होते हो-सचेत, सजग, होशपूर्ण-तो तुम्हारी आंखें कैमरे की आख की भांति हो जाती हैं। तुम बस वही देखते हो, जो है; तुम प्रक्षेपण नहीं करते। तुम वास्तविकता को बदलते नहीं; तुम तो बस वास्तविकता को उदघाटित होने देते हो। तुम्हारी आंखें सरल, निर्दोष मार्ग होती हैं, वे सीधा-सीधा देखती हैं। अभी तो जैसे तुम हो, तुम सीधा-सीधा नहीं देख सकते। तुम्हारी आंखें पहले से ही पूर्वाग्रहों, विचारों, धारणाओं, विश्वासों से भरी हैं। तुम देख नहीं सकते। तुम्हारी आंखें खाली नहीं हैं देखने के लिए।
कैसे तुम सजग हो सकते हो दूसरों के प्रति? केवल बुद्ध पुरुष सजग होते हैं, वे जो कि जाग गए हैं स्वयं के भीतर। लेकिन बुद्ध बहुत स्वार्थी हैं, महावीर स्वार्थी हैं, पतंजलि भी बिलकुल स्वार्थी हैंलेकिन वे लाखों व्यक्तियों की मदद करते हैं। वे लाखों व्यक्तियों के लिए आशीष बन जाते हैं। जिन्हें भी जरूरत है और जो खोज रहे हैं, उनके प्रकाश का उपयोग कर सकते हैं। वे प्रकाशित हैं। वही बुद्धत्व का अर्थ है. उनका दीया जल गया है। तुम सम्मिलित हो सकते हो उसमें। उनके दीए से तुम अपना दीया भी जला सकते हो। तुम सहभागी हो सकते हो।
तो सजगता सीखनी होती है भीतर। जब तुम अपने भीतर जाग जाते हो, तो तुम सारे संसार के प्रति, सारे अस्तित्व के प्रति जाग जाते हो। अचानक पर्दे हट जाते हैं। अचानक तुम्हारी आंखें आच्छादित नहीं रहती-वे शून्य, ग्रहणशील और निर्मल हो जाती हैं। तुम देखते हो; तुम आरोपित नहीं करते, तुम व्याख्या नहीं करते। आरोपित करने के लिए तुम्हारे पास कुछ बचता नहीं। तुम एक खाली जगह, एक अंतर-आकाश, एक आंतरिक शून्य हो जाते हो।
तीसरा प्रश्न:
निराश होने में क्या आपके प्रति निराश होना भी सम्मिलित है? बिना आशा के विकास कैसे संभव है?
जाशा बड़े से बड़े अवरोधों में से एक है, क्योंकि आशा के द्वारा स्वप्न निर्मित होते हैं, आशा के
द्वारा भविष्य निर्मित होता है, आशा के द्वारा समय निर्मित होता है। जब मैं कहता हूं कि आशा छोड़ दो, तो मेरा मतलब है अभी और यहीं जीओ। यदि तुम आशा करते हो, तो अभी और यहां से तुम हट चुके होते हो।
तुम आशा के द्वारा जीवन को स्थगित करते हो; तुम कहते हो, 'मैं कल जीऊंगा, जब सब ठीक होगा।' जब हर चीज जैसी तुम चाहते हो वैसी होगी-जब तुम्हारे पास पर्याप्त धन होगा, शक्ति होगी, रुपया