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अहंकार एक भौतिक पदार्थ है, वह धीमी गति वाली ऊर्जा है। जब उसे तुम समर्पित कर देते हो, तो तुम्हें प्रकाश की गति उपलब्ध होती है। फिर तुम कोई ठोस वस्तु नहीं रहते : तब तुम निर्धार ऊर्जा होते हो। और निर्भार ऊर्जा की कोई सीमा नहीं होती; वह असीम होती है। और निर्भार ऊर्जा की परिभाषा किसी और ढंग से नहीं की जा सकती है, उसे कहने का एकमात्र ढंग यही है कि वह प्रकाश है। बाइबिल कहती है, 'ईश्वर प्रकाश है।' कुरान कहता है, 'ईश्वर प्रकाश है।' उपनिषद कहते हैं, 'ईश्वर प्रकाश है।' तुम प्रकाश हो जाते हो।
'समाधि का पूर्ण आलोक फलित होता है - ईश्वर के प्रति समर्पण घटित होने पर ।'
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पहले स्वाध्याय से बढ़ना, ताकि तुम भीतर के ईश्वर का साक्षात्कार कर सको। फिर समर्पण कर देना उसके प्रति पूरे के पूरे जैसे तुम हो उसके प्रति समर्पित हो जाना और ध्यान रहे कि वह समर्पण कोई प्रयास नहीं होता है, इसलिए इसकी फिक्र मत करना कि समर्पण कैसे करें। तुम स्वाध्याय की फिक्र करना; समर्पण तो छाया की भांति पीछे चला आता है। समर्पण की कोई विधि नहीं होती। जब तुम जान लेते हो स्वयं को, तो तुम जान लेते हो कि कैसे झुक जाएं और समर्पित हो जाएं। परमात्मा के चरणों में समर्पित होकर तुम स्वयं परमात्मा हो जाते हो। अस्तित्व के साथ संघर्ष में तुम एक कुरूप अहंकार बने रहते हो । अस्तित्व के प्रति समर्पित होकर तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो। समर्पण, लेट-गो परम मंत्र है।
लेकिन तुम्हारे मन में लोभ उठ सकता है : 'फिर प्रतीक्षा क्यों करूं? फिर क्यों न मैं अभी समर्पण कर दूं?' तुम अभी समर्पण नहीं कर सकते। तुम्हीं तो बाधा हो, तो तुम कैसे समर्पण कर सकते हो? जब 'तुम' नहीं होते, तो समर्पण होता है। यदि तुम हो, तो समर्पण संभव नहीं है। तुम नहीं करोगे समर्पण; तुम्हारा खो जाना ही समर्पण होगा। तुम बाहर जाते हो एक द्वार से दूसरे द्वार से समर्पण प्रवेश करता है। तुम और समर्पण एक साथ नहीं हो सकते।
तो खयाल में ले लेना तुम समर्पण नहीं कर सकते हो। अपने को देखना, अपना अध्ययन करना, ताकि तुम और-और शुद्ध होते जाओ इतने शुद्ध हो जाओ कि करीब-करीब मिट ही जाओ, केवल एक शुद्धता, एक सुवास बचे - तो समर्पण घटित होता है।
इस सूत्र में पतंजलि केवल इतना ही कह रहे हैं कि समाधि का पूर्ण आलोक फलित होता है-ईश्वर के प्रति समर्पण घटित होने पर। वे यह नहीं कह रहे हैं कि समर्पण कैसे किया जाए। वे यह नहीं बता रहे हैं कि समर्पण करना ही होता है। वे तो बस संकेत कर रहे हैं एक घटना की तरफ। स्वाध्याय से तुम साक्षात्कार करोगे ईश्वर का । यदि तुमने स्वाध्याय किया है, तो तुम मंदिर में प्रवेश कर जाते हो, तुम्हें साक्षात्कार होता है ईश्वर का, और फिर कोई समस्या नहीं रहती । जिस घड़ी तुम 'उसका' साक्षात्कार करते हो, समर्पण घटित होता है। यह करने की बात नहीं है, ऐसा होता है।