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रख लेने की जरूरत नहीं है, इन्हें प्राणों में उतारने की जरूरत है। तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व को समझ में आनी चाहिए बात, बस इतना काफी है। फिर भूल जाना इन बातों को। वे अपना काम शुरू कर देती
'प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।
दो बातें। पहली बात. प्रयास को शिथिल करना, उसे जबरदस्ती मत थोपना, उसे सहज होने देना। वह नींद जैसा है; उसे सहज होने देना। वह बहने जैसा है; होने देना उसको.। उसे जबरदस्ती थोपना मत; अन्यथा तुम उसकी हत्या कर दोगे। और दूसरी बात : जब शरीर विश्राम में उतर रहा हो, गहन विश्राम में थिर हो रहा हो, तो तुम्हारा मन केंद्रित होना चाहिए असीम पर।
मन बहत कुशल है सीमित के साथ। यदि तुम धन के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है, यदि तुम सत्ता के विषय में, राजनीति के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है। यदि तुम शब्दों के विषय में, दर्शन के, सिद्धांतो के विषय में, धारणाओं के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है-ये सब सीमित बातें हैं। लेकिन यदि तुम परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो अचानक मन ठिठक जाता है, एक शून्य आ जाता है। तुम क्या सोच सकते हो परमात्मा के विषय में?
यदि तुम कुछ भी सोच सकते हो, तो फिर वह परमात्मा परमात्मा नहीं है; वह सीमित हो गया। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो कृष्ण के रूप में, तो वह परमात्मा नहीं है; तब कृष्ण वहां हो सकते हैं अपनी बांसुरी बजाते हुए, लेकिन सीमा आ गई। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो क्राइस्ट के रूप में, तो तुम चूक गए। वह परमात्मा न रहा, तुमने एक सीमा दे दी। सुंदर है छवि, लेकिन असीम के सौंदर्य की तुलना में कुछ भी नहीं है। दो प्रकार के परमात्मा हैं। पहला, धारणा का परमात्मा. ईसाई परमात्मा, हिंदू परमात्मा, मुसलमान परमात्मा। और दूसरा, अस्तित्वगत परमात्मा, धारणागत नहीं. वह असीम है। यदि का मुसलमान परमात्मा के विषय में सोचते हो तो तुम मुसलमान होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। यदि तुम ईसाई परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो तम ईसाई होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। अगर तुम परमात्मा का सीधा साक्षात करते हो तो ही तुम धार्मिक होओगे-फिर तुम हिट' नहीं रहते, मुसलमान नहीं रहते, ईसाई नहीं रहते।
और वह परमात्मा कोई धारणा नहीं है। धारणा तो एक खिलौना है जिससे तुम्हारा मन खेलता है। वास्तविक परमात्मा तो बड़ा विराट है। तब परमात्मा खेलता है तुम्हारे मन के साथ न कि तुम्हारा मन खेलता है परमात्मा के साथ। तब परमात्मा तुम्हारे हाथ का खिलौना नहीं होता; तुम एक खिलौना होते हो परमात्मा के हाथ में। सारी बात बदल जाती है। अब तुम नियंत्रण नहीं करते-नियंत्रण तुम्हारे हाथ से छूट जाता है, अब परमात्मा तुम्हें चलाता है। इसके लिए सही शब्द है 'आविष्ट होना, ' असीम द्वारा आविष्ट होना, संचालित होना।