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बुद्ध ने अपने मार्ग को कहा है, 'मज्झिम निकाय' -मध्य मार्ग। वे अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'केवल एक बात ध्यान रखने की है. सदा मध्य में रहो; अतियों पर मत जाओ।'
संसार भर में अतियां हैं। कोई निरंतर स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है-रोमियो, मजनू-निरंतर भाग रहा है स्त्रियों के पीछे। और फिर किसी दिन वह सारी भाग-दौड़ से थक जाता है। तब वह छोड़ देता है संसार और वह संन्यासी हो जाता है। और फिर वह हर किसी को स्त्रियों के विरुद्ध समझाता रहता है, और फिर वह कहता रहता है. 'स्त्री नरक का दवार है। सचेत रहो। स्त्री ही फांसी है।' जब भी तुम किसी संन्यासी को स्त्री के विरुद्ध बोलते हुए पाओ, तो तुम समझ सकते हो कि वह पहले जरूर रोमियो रहा है। वह स्त्री के बारे में कुछ नहीं कह रहा है; वह अपने अतीत के बारे में कुछ कह रहा है। अब एक अति समाप्त हो गई, वह दूसरी अति की तरफ जा रहा है।
कोई पागल है धन के पीछे। 3
धन के पीछे पागल, एकदम आविष्ट, जैसे कि उनका पूरा जीवन धन के अंबार इकठे करने के लिए ही हो। लगता है कि उनके यहां होने का एकमात्र अर्थ इतना ही है कि जब उनकी मृत्यु हो तो वे धन के अंबार छोड़ जाएं-दूसरों से बड़े अंबार! वही उनके जीवन का कुल अर्थ मालूम पड़ता है। जब ऐसा आदमी थक जाता है तो वह सिखाने लगता है, 'धन दुश्मन है।' जब भी तुम किसी को यह कहते हुए सुनो कि धन दुश्मन है, तो तुम समझ सकते हो कि यह आदमी जरूर धन के पीछे पागल रहा होगा। अभी भी वह पागल ही है-दूसरी अति पर है।
एक ठीक संतुलित व्यक्ति किसी चीज के विरुद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह किसी चीज के पक्ष में नहीं होता है। यदि तुम मेरे पास आओ और पूछो, 'क्या आप धन के विरोधी हैं?' मै केवल अपने कंधे बिचका सकता हूं। मैं धन के विरोध में नहीं हूं क्योंकि मैं कभी उसके पक्ष में नहीं था। धन एक साधन है, एक उपयोगिता है, विनिमय का एक माध्यम है-उसके पीछे पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। यदि वह तम्हारे पास है तो उसका उपयोग कर लो। यदि वह तम्हारे पास नहीं है तो उसके न होने का मजा लो। यदि तुम्हारे पास धन है तो धन का उपयोग करो। यदि तुम्हारे पास धन नहीं है तो उसके न होने का आनंद लो। संतुलित व्यक्ति यदि महल में है, तो वह महल का सुख लेता है। यदि महल न हो तो वह झोपड़ी का आनंद लेता है। कैसी भी स्थिति हो, वह प्रसन्न और संतुलित रहता है। न तो वह महल के पक्ष में होता है और न वह, उसके विरोध में होता है। जो व्यक्ति पक्ष में या विरोध में होता है, वह असंतुलित है, वह संतुलित नहीं है।
बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'बस संतुलित रहो, और सब कुछ अपने आप सध जाएगा। मध्य में रही।' और यही पतंजलि कहते हैं जब वे आसन के विषय में कह रहे हैं। बाह्य आसन है शरीर से संबंधित; आंतरिक आसन है मन से संबंधित। दोनों जुड़े हुए हैं। जब शरीर मध्य में होता है, विश्राम में होता है, थिर होता है, तो मन भी मध्य में होता है-शांत और मौन होता है। जब शरीर शांत होता है, तो शरीर-भाव तिरोहित हो जाता है, जब मन विश्राम में होता है, तो मन तिरोहित हो जाता है। तब तुम केवल आत्मा होते हो, इंद्रियातीत, जो न शरीर है और न मन।