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और यदि तुम अपना फोकस, अपने ध्यान का केंद्र बदल देते हो - तो 'सेल्फ' से हट कर केंद्र हो जाता है 'कांशसनेस' पर। अब तुम्हें चिंता नहीं रहती कि लोग मुझे अस्वीकार करते हैं या स्वीकार करते हैं। उनकी राय क्या है, इसका कुछ महत्व नहीं रहता। अब तुम प्रत्येक स्थिति में होशपूर्ण रहना चाहते हो चाहे वे अस्वीकार करें या स्वीकार करें, चाहे वे प्रेम करें या घृणा करें, चाहे वे तुम्हें पापी कहें या संत कहें, कुछ महत्व नहीं होता इस बात का वे क्या कहते हैं, उनकी राय क्या है, यह उनका अपना मामला है और यह उनकी अपनी समस्या है। तुम तो बस प्रत्येक अवस्था में सजग रहने का प्रयास करते हो।
कोई आता है, तुम्हारे सामने झुकता है; वह मानता है कि तुम संत हो तुम कुछ फिक्र नहीं करते कि वह क्या कहता है, वह क्या मानता है। तुम केवल सजग रहते हो, तुम पूरी तरह सजग रहते हो, ताकि वह तुम्हें बेहोशी में न खींच सके, बस इतना ही और फिर कोई आता है और तुम्हारा अपमान कर देता है और एक फटा-पुराना जूता तुम पर फेंक देता है तुम फिक्र नहीं करते कि वह क्या कर रहा है। तुम तो बस सजग रहने का प्रयास करते हो, ताकि तुम अस्पर्शित रहो - वह तुम्हें डांवाडोल न कर सके। आदर हो या निंदा, असफलता हो या सफलता, तुम वैसे के वैसे बने रहते हो। तुम्हारी सजगता से तुम ऐसी शांत अवस्था को उपलब्ध हो जाते हो जो किसी भी तरह से डांवाडोल नहीं की जा सकती है तुम दूसरों के मूल्यांकन से मुक्त हो जाते हो।
धार्मिक व्यक्ति और राजनीतिक व्यक्ति के बीच यही भेद है। राजनीतिक व्यक्ति सेल्फ-कांशस होता है, उसका ध्यान होता है मैं पर वह हमेशा लोगों की राय की फिक्र करता है। वह लोगों के मत पर, वोटों पर निर्भर होता है। अंततः भीड़ ही मालिक है और निर्णायक है। धार्मिक व्यक्ति अपना मालिक होता है, कोई उसके लिए निर्णायक नहीं हो सकता। वह तुम्हारे वोटों पर या तुम्हारे मूल्यांकनों पर, तुम्हारे मतो पर निर्भर नहीं होता। यदि तुम उसके पास आते हो, तो ठीक। यदि तुम उसके पास नहीं आते, तो भी ठीक। कोई समस्या नहीं होती इससे । वह स्वयं में आनंदित होता है।
अब मैं तुम से एक बड़ी ही विरोधाभासी बात कहना चाहूंगा - विरोधाभासी केवल मालूम पड़ती है, वैसे है वह सीधा-साफ सत्य जो लोग सेल्फ-कांशस होते हैं, अपने प्रति बहुत चिंतित होते हैं, उनकी कोई आत्मा नहीं होती। इसीलिए वे अपने बारे में इतने चिंतित होते हैं, भयभीत होते हैं-कोई भी छीन सकता है उनकी आत्मा उनके पास होती ही नहीं आत्मा वे मालिक नहीं होते। उनकी आत्मा, उनका व्यक्तित्व उधार होता है, दूसरों के सहारे होता है कोई मुस्कुराता है और उनके व्यक्तित्व को सहारा मिल जाता है। कोई अपमान कर देता है- एक सहारा हट जाता है और उनका ढांचा हिल जाता है कोई क्रोधित होता है और हम भयभीत हो जाते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति क्रोध करने लगे तो कहां
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जाएंगे वे! क्या होगा उनका! उसके व्यक्तित्व, उनकी पहचान टूट जाती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति मुस्कुराता है और कहता है, आप महान है तो आप महान हो जाते हैं।