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तुम्हें केवल समझना होता है, और वे तिरोहित हो जाते हैं। सपने को नहीं छोड़ा जा सकता है। तुम्हें बस सजग होना होता है कि यह सपना है, और सपना खो जाता है। अहंकार सूक्ष्मतम सपना है. यह सपना कि मैं अस्तित्व से अलग हूं; यह सपना कि मुझे कुछ पाना है 'समग्र' के विरुद्ध; यह सपना कि मैं अलग व्यक्ति हूं। जिस क्षण तुम होशपूर्ण होते हो, सपना मिट जाता है।
तुम समग्र के विपरीत नहीं हो सकते, क्योंकि तुम समग्र के हिस्से हो। तुम समग्र के विरुद्ध नहीं बह सकते, कैसे तुम बह सकते हो? यह तो वैसी ही मूढ़ता हुई जैसे मेरा ही हाथ मेरे विरुद्ध होने की कोशिश कर रहा हो। समग्र के विरुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है। केवल एक ही उपाय है. समग्र के साथ बहने लगो।
तुम जब लड़ भी रहे होते हो, तब भी तुम समग्र से अलग नहीं हो सकते-वह तुम्हारी कल्पना ही है। जब तुम सोचते भी हो कि तुम समग्र के विरुद्ध चल रहे हो या समग्र से अलग हो या तुम्हारा अपना कोई अलग लक्ष्य है, तो वह केवल सपना ही है; तुम अलग हो नहीं सकते। वह ऐसा ही है जैसे झील पर उठी तरंग झील के विरुद्ध होने की सोच रही हो : एकदम मढ़ है-कभी वैसा होने की कोई संभावना नहीं है। कैसे झील पर उठी कोई तरंग अपने आप कहीं जा सकती है? वह रहेगी झील का हिस्सा ही। यदि वह कहीं जाती हुई मालूम भी पड़ती है, तो वह झील की मर्जी रही होगी तभी वह जा रही है।
जब कोई यह समझ लेता है, तो वह जान जाता है। वह हंसने लगता है कि मैं बड़े सपने में जी रहा था-अब सपना तिरोहित हो गया है। मैं अब नहीं है। मैं दोनों ही था, स्वप्न भी और स्वप्न देखने वाला भी। अब 'समग्र' ही है।
प्राणायाम वह स्थिति निर्मित करता है जहां 'लौटना' संभव हो जाता है, क्योंकि अब कहीं जाने को नहीं रहता। संघर्ष समाप्त हो चुका। कोई शत्रुता नहीं बचती। अब तुम अपनी अंतस सत्ता की ओर बहने लगते हो और सच में नहीं है, वह बहार जाना नहीं है। वह बहना है। यदि तुम संघर्ष छोड़ दो, यदि तुम बहार जाना समाप्त कर देते है भीतर की ओर बहने लगते हो। यह स्वाभाविक है।
प्राणायाम के बाद, पतंजलि कहते हैं, 'फिर उस आवरण का विसर्जन हो जाता है, जो प्रकाश को ढंके हए है।'
इस सूत्र में गहरे उतरना है, एक-एक शब्द पर ध्यान देना है और समझना है, क्योंकि बहत सी बातें निर्भर करेंगी इस सूत्र पर।
पतंजलि यह नहीं कह रहे हैं कि प्राणायाम के बाद भीतरी प्रकाश पा लिया जाता है। पतंजलि के बहत से व्याख्याकारों ने गलत दृष्टिकोण अपनाया है। वे सोचते हैं कि यह सूत्र कहता है कि आवरण हट जाता है और व्यक्ति प्रकाश को उपलब्ध हो जाता है। ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो फिर धारणा,