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भीड़ के साथ सफलता असफलता है।
पांचवां प्रश्न :
आत्म-स्मरण और साक्षी के बीच क्या भेद है?
अभी मैंने तुम से आत्म-विश्लेषण और आत्म-स्मरण के बीच के भेद की चर्चा की। अब
आत्म-स्मरण और साक्षी के बीच का भेद।
ही, इनमें भ द है. क्योंकि आत्म-स्मरण में जोर है 'आत्म' पर। आत्म-विश्लेषण में जोर है विचार पर, अनुभूति पर, भावना पर, भावावेग पर-क्रोध पर, कामवासना पर या ऐसी ही अन्य बातों पर-और स्वयं को भुला दिया जाता है। आत्म-स्मरण में अपना स्मरण रखा जाता है और सारी ऊर्जा अपने पर केंद्रित हो जाती है, और तुम बस देखते हो भीतर की भाव-दशा को, स्थिति को, अनुभूति कों-तुम सोचते नहीं उसके विषय में, क्योंकि सोचने में तो देखना खो जाता है, दृष्टि की शुद्धता खो जाती है।
साक्षी एक कदम और आगे की बात है। साक्षी में 'आत्म' भी गिरा देना होता है; केवल स्मरण बचता है। ऐसा नहीं कि 'मैं' स्मरण करता हूं।'मैं साक्षी का हिस्सा नहीं है। मात्र स्मरण! साक्षी है स्वयं का साक्षी होना। आत्म-स्मरण शुरुआत है, साक्षी अंत है। आत्म-स्मरण में तुम देखते हो क्रोध कोस्वयं में केंद्रित, स्वयं में स्थिर-मन में उठती तरंगों को देखते हो। लेकिन जब तम देखते हो मन तो धीरे-धीरे मन खो जाता है। जब मन खो जाता है और वहां शन्य होता है तब एक कदम आगे बढ़ा जा सकता है : अब तुम देखते हो स्वयं को। अब वही ऊर्जा जो क्रोध को देख रही थी, कामवासना को, ईर्ष्या को देख रही थी, वह मुक्त हो जाती है क्योंकि ईर्ष्या, क्रोध और काम खो चुके होते हैं। अब वही ऊर्जा तुम्हारी अपनी तरफ मुड़ जाती है।
जब वही ऊर्जा देखती है 'स्वयं' की तरफ, तो 'स्वयं भी खो जाता है; तब केवल स्मरण बचता है। वह स्मरण ही साक्षी है। साक्षी में कहीं कोई 'केंद्र' नहीं होता। क्रोध को 'तुम' देखते हो; लेकिन जब तुम स्वयं को देखते हो, तो तुम फिर 'तुम' नहीं रह जाते : केवल एक विराट, असीम, अनंत साक्षी होता है। शुद्ध चेतना होती है-असीम और अनंत, लेकिन कहीं कोई केंद्र नहीं होता है।