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मैं गतिशील जीवन के पक्ष में हूं। जीवन में एक लयबद्धता होनी चाहिए : तुम बाहर जाओ, तुम भीतर आओ, और कहीं भी रुकना नहीं। केवल सजग रहना। स्मरण बनाए रखना। सतत स्मरण बना रहे। जब तुम बाहर के संसार में हो, तब भी स्मरण बना रहे। और जब तुम अपने भीतर होओ, तब भी स्मरण बना रहे। होश को सदा जगाए रखना, रोशन रखना, जीवंत रखना। सजगता की लौ खो न जाए-बस यही असली बात है। फिर बाजार में रहो कि मठ में रहो-तुम कभी जीवन में चूकोगे नहीं। तुम जीवन की आत्यंतिक गहराई को उपलब्ध हो जाओगे।
वह आत्यंतिक गहराई है परमात्मा। परमात्मा गतिशीलता है। बाहर और भीतर, अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों ही-लेकिन होशपूर्ण।
तीसरा प्रश्न :
अब कभी-कभी आप प्रवचन के दौरान हंसते हैं!
जरूर ज्यादा आध्यात्मिक, ज्यादा धार्मिक हो रहा होऊंगा; क्योंकि जितना तम धर्म में गहरे
उतरते हो, उतना ही तुम जीवन को गैर-गंभीर ढंग से लेते हो। तुम हंसते हो, मुस्कुराते हो। तब जीवन कोई बोझ नहीं रहता। तब तुम्हारा पूरा जीवन एक मुस्कुराहट हो जाता है; वह कोई गंभीर बात नहीं रहती।
लेकिन पूरे संसार में तथाकथित धार्मिक व्यक्ति लोगों को बहुत गंभीर होना सिखाते रहे हैं-लटके हुए, उदास चेहरे। यह रुग्णता है, स्वास्थ्य नहीं। तुम तो हंसी को अपनी प्रार्थना बना लेना। खूब जी भर कर हंसना। हंसी तुम्हारी बंधी ऊर्जाओं को जितना निर्मुक्त करती है उतना और कोई चीज नहीं करती। हंसी तुम्हें जितना निर्दोष बनाती है उतना और कोई चीज नहीं बनाती। हंसी तुम्हें जितना बच्चों जैसा बनाती है उतना और कोई चीज नहीं बनाती। बच्चे हंसते हैं और खिलखिलाते हैं और मुस्कुराते हैं। निश्चित ही वे रोते भी हैं, लेकिन उनका रोना सुंदर होता है।
तो रोओ और हंसो, और इन्हें तुम्हारी प्रार्थना बनने दो। मंदिर जाओ तो शब्दों का उपयोग मत करो। चर्च जाओ तो फिक्र मत करो प्रार्थना के स्वीकृत, अधिकृत पाठ की। ऐसा कुछ है नहीं; कोई प्रार्थना अधिकृत नहीं है। तुम अपनी प्रार्थना निर्मित करो। यदि रोने का भाव हो, तो रोओ। आंसू किन्हीं भी शब्दों की अपेक्षा ज्यादा अर्थपूर्ण होते हैं; वे तुम्हारे हृदय की खबर लाते हैं। वे ज्यादा प्रार्थनापूर्ण, ज्यादा सुंदर, ज्यादा अर्थपूर्ण होते हैं। शब्द मुर्दा होते हैं। आंसू जीवंत होते हैं, ताजा होते हैं-तुम से बह