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जब तुम्हारा मन कहीं दौड़ता नहीं, जब तुम किसी और समय या कहीं किसी और स्थान की इच्छा नहीं करते, जब तुम किसी और ढंग से अस्तित्व की मांग नहीं करते, जब तुम किसी भी चीज की मांग नहीं करते, जब मांगना मात्र गिर चुका होता है; तुम बस अभी और यहीं होते हो, आनंदित होते
जैसे पक्षी चहचहाते हैं वक्षों पर, फुल खिलते हैं वक्षों में, चांद-तारे घमते हैं, हर चीज ऐसे स्वीकृत होती है जैसे कि यही है सब कुछ, संपूर्ण, सर्वश्रेष्ठ, कोई और सुधार इसमें संभव नहीं है; जब भविष् छूट जाता है, जब कल खो जाता है तो संतोष उपलब्ध होता है। जब 'अभी' होता है एकमात्र समय, शाश्वतता, तो संतोष उपलब्ध होता है। और उसी संतोष में पतंजलि कहते हैं 'परम सुख होता है।'
'संतोष से उपलब्ध होता है परम सुख।'
इसलिए संतोष है योगी का अनुशासन; वह संतुष्ट रहता है। अगर कोई बात तुम्हें असंतुष्ट नहीं कर सकती, अगर कोई बात तुम्हें बेचैन नहीं कर सकती, अगर कोई बात तुम्हें अपने केंद्र से नहीं हटा सकती-तो परम सुख उमड़ आता है।
आज इतना ही।
प्रवचन 54 - आत्म-सुख से परोपकार का जन्म
प्रश्नसार:
1-प्रेमपूर्ण हृदय वाला व्यक्ति स्वार्थी कैसे हो सकता है?
2-स्वार्थी होकर भी कोई दूसरों के प्रति सजग हो सकता है या नहीं?
3-निराश होने में क्या आपके प्रति निराश होना भी सम्मिलित है? बिना आशा के विकास कैसे होता
4-आपने कहा कि आप लोगों पर 'काम' नहीं करते, तो शिष्य बनाने का क्या अर्थ है?
5-सुख पाने के लिए मनुष्य पुन: गर्भ को खोजना है, तो क्या आप हम शिष्यों के लिए एक गर्भ है?