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अगर यह बात इतनी ही आसान होती कि मेरे आशीर्वाद से काम चल जाता, तो मैने सारे संसार को आशीर्वाद दे दिया होता। एक -एक व्यक्ति को अलग-अलग आशीर्वाद देने की फिक्र क्या करनी? थोक के भाव ही दे दो आशीर्वाद, और सारा संसार बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाए। तो बुद्ध ने पहले ही आशीर्वाद दे दिया होता, महावीर ने आशीर्वाद दे दिया होता-बात खतम हो गई होती। सारे लोग संबद्ध हो गए होते!
लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। कोई नहीं दे सकता तुम्हें आशीर्वाद; तुम्हें अर्जित करना होता है आशीर्वाद। तुम्हें गुजरना होता है गहरे अनुशासन से, तुम्हें बदलना होता है अपने अंतस का फोकस; तुम्हें बनना होता है सक्षम; तुम्हें बनना होता है सम्यक माध्यम। अन्यथा कई बार ऐसा हुआ है कि सांयोगिक रूप से कोई उस परम घटना के सामने आ जाता है, लेकिन वह बहुत घबड़ाने वाली बात हो जाती है और उसने किसी की कोई मदद नहीं की है। उससे तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व डावाडोल हो सकता है-तुम शायद पागल ही हो जाओ। यह बिलकुल ऐसे है जैसे एक शक्तिशाली विद्युत- धारा तुम में अचानक दौड़ जाए जिसके लिए तुम तैयार नहीं हो-हर चीज गड़बड़ा जाएगी। यहां तक कि फ्यूज भी उड़ सकता है-तुम मर सकते हो।
तो तुम्हें शुद्धता उपलब्ध करनी होती है। शरीर के साथ, मन के साथ अतादात्म्य उपलब्ध करना होता है; तुम्हें साक्षीभाव की एक सुनिश्चित स्थिति उपलब्ध करनी होती है। केवल तभी, केवल उसी अनुपात में, आत्म-ज्ञान संभव होता है। तुम इसे मुफ्त में नहीं पा सकते। तुम्हें इसका मूल्य चुकाना होता है-और मूल्य चुकाना होता है आंतरिक बदलाहट द्वारा। ऐसा नहीं है कि तुम इसका मूल्य धन से चुका सकते हो, कोई ऐसी चीज मदद न देगी तुम्हें मूल्य चुकाना होता है अपनी आंतरिक बदलाहट द्वारा।
'.....और आत्म-दर्शन की योग्यता।'
संतोष से उपलब्ध होता है परम सुख।
और यह शुद्धता अंतत: संतोष ले आती है। यह शब्द सर्वाधिक गढ़ शब्दों में से एक है; तुम्हें इसे ठीक से समझ लेना है; इसे अनुभव करना है, इसे आत्मसात करना है।
संतोष का अर्थ है : जैसी भी स्थिति है, तुम बिना किसी शिकायत के उसे स्वीकार कर लेते हो। असल में तुम न केवल उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार करते हो, तुम बहुत धन्यवाद के साथ उसका आनंद मनाते हो। यह क्षण अपने आप में संपूर्ण है।